उसने ऐसे दौर में वकालत की पढ़ाई करने के लिए अपने कदम बाहर निकाले, जब औरतों का घूंघट-पर्दे में रहना उनके संस्कारी कहलवाता था. औरतें पर्दे से बाहर आए, ये उस दौर के समाज को बिल्कुल पसंद नहीं था.
अब बात कर रहे हैं भारत की पहली वकील कोर्नेलिया सोराबजी की. जिन्हें आज गूगल ने अपने डूडल पर याद किया है.
महिला हो, फिर वकालत की पढ़ाई की क्या जरुरत?
कोर्नेलिया सोराबजी का जन्म 15 नवम्बर 1866 को नासिक में एक पारसी परिवार में हुआ था. 1892 में नागरिक कानून की पढ़ाई के लिए विदेश गई और 1894 में भारत लौटीं. पढ़ाई के दौरान भी उन्हें महिला होने के कारण काफी भेदभाव झेलना पड़ता था. पढ़ाई के दौरान कई लड़के उनके पास आते थे और उनसे सवाल पूछते थे कि तुम एक लड़की हो…तो तुम्हें क्या जरुरत है वकालत करने की? तुम्हें तो घर में खाना बनाना चाहिए’. लेकिन कोर्नेलिया ने हिम्मत नहीं हारी और पढ़ाई जारी रखी.
पर्दे से वकालत तक
उस समय के समाज में महिलाओं को वकालत का अधिकार नहीं था. विदेश से कानून की पढ़ाई कर लौटीं, सोराबजी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई. 1907 के बाद कोर्नेलिया को बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम की अदालतों में सहायक महिला वकील का पद दिया गया. एक लम्बी लड़ाई के बाद 1924 में महिलाओं को वकालत से रोकने वाले कानून को हटाकर उनके लिए भी वकालत का अधिकार दिया गया.
सोराबजी बॉम्बे यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने वाली पहली महिला थीं. सोराबजी का जीवन संघर्ष की मिसाल है. ऑक्सफर्ड में पढ़ाई के लिए उन्हें स्कॉलरशिप नहीं मिली तो उन्होंने इसके खिलाफ भी जंग की. भारत लौटने के बाद उन्होंने पर्दे में रहने वाली महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी…Next
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