ट्रांसजेंडर वो होते हैं जिसका मजाक उड़ा लोग हँसते हैं और जिसे समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं किया जाता. उपहास और तिरस्कार का घूँट पीकर भी ये लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने का काम सदियों से करते आ रहे हैं. ऐसी ही एक ट्रांसजेंडर अधिकारी की कहानी जिसके यौन-शोषण से समाज की मुख्यधारा के लोग नहीं चूके. पराये तो पराये ठहरे, अपने सगे चाचा ने उसका यौन-शोषण किया. प्रतिकूल परिस्थितियों को झेलते हुए भी उसने अपनी पढ़ाई पूरी की और आज भारत की पहली ट्रांसजेंडर अधिकारी बन एड़्स पीड़ितों की सेवा में लगी हुई है. छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने एड्स पीड़ितों की सेवा के लिए ट्रांसजेंडर अमृता अल्पेश सोनी को नोडल अधिकारी बनाया है. यह नियुक्ति इसलिए भी खास है कि क्योंकि वो स्वयं एचआईवी संक्रमित हैं.
सोलापुर में जन्मे अमृता का बचपन आम बच्चों की तरह नहीं बीता. पिता ने कभी प्यार नहीं किया और कुदरत की गलती का एहसास अमृता को कराते रहे. माँ के अलावे कोई ऐसा नहीं था जिसने उसे समझने की कोशिश की हो. दसवीं की पढ़ाई के बाद चाचा उसे अपने साथ इलाज के बहाने दिल्ली ले गए. वहाँ चाचा ही उसका यौन-शोषण करने लगे. किसी तरह अमृता ने बारहवीं तक की पढ़ाई की. घर लौट कर जब सबके सामने चाचा की करतूतों के बारे में बताया तो पिता ने साफ कह दिया कि तुम हमारे लिए मर चुकी हो. माँ की अपनी मज़बूरियाँ थी. उसके बाद अमृता ने घर छोड़ दिया और पुणे पहुँच गई. लेकिन पुणे जैसे शहर में छत और रोटी की तलाश करना एक चुनौतीपूर्ण काम था.
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रुआंसी हो उसने किन्नरों को तलाशना शुरू किया. लगा कि वही उसे अपना लें तो कम से कम ज़िंदा रहने की कोई वजह तो रहेगी. पुणे में ही अमृता की मुलाक़ात कुछ समलैंगिकों से हुई. उसे कशिश भालके जैसे लोग मिले जो आज ट्रांसजेंडर लोगों के लिए काम कर रहे हैं. फिर वो उनके साथ रहने लगी. वो औरतों वाले कपड़े पहनने लगी और मेकअप करने लगी.
अब उसका घर वालों से कोई संपर्क नहीं था, लेकिन माँ की एक दोस्त से बात होती रही. छह माह बाद जब वो माँ से मिलने घर पहुँची तो उसका हुलिया देखते हुए माँ ने उसे अपनी वेशभूषा बदलने को कहा. पर अब तो जैसे यही उसका कर्म था और यही धर्म. माँ को मानना पड़ा और उसने उसे हमेशा खुश रहने का आशीर्वाद दिया. माँ से विदा लेकर वह पुणे लौटी और यौन-कर्मी के तौर पर काम करने लगी. ज़िंदगी ऐसी ही चल रही थी, लेकिन माँ की सीख याद थी. एक दिन उसने अपनी किन्नर गुरु से कहा कि वो पढ़ना चाहती है तो वो हंसने लगी और बोली, “कोई हिजड़ा पढ़ कर करेगा क्या? क्या पढ़ने से यह समाज हमें स्वीकार कर लेगा?”
लेकिन उसने उनकी नहीं सुनी और स्नातक में दाखिले के लिए नामांकन परीक्षा दिया. जामिया मिलिया इस्लामिया में उसका चयन भी हुआ. पहले दिन वो साड़ी पहन कर कॉलेज गई तो अजीब लगा. अगले दिन से उसने लड़कों वाले ड्रेस पहन कर जाना शुरू किया. नोडल अधिकारी बनने से पहले अमृता ने पढ़ाई के खर्चों को पूरा करने के लिए मुंबई में बार गर्ल्स का भी काम किया. ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान उसने कॉल सेंटर में काम जारी रखा. वह दिन में कॉलेज जाती और रात को कॉल सेंटर.
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मुंबई लौट कर उसे एक कॉल सेंटर में काम मिला, लेकिन यौन शोषण के कारण काम छोड़ना पड़ा. फिर उसने कई जगह काम तलाशने की कोशिश की, लेकिन हर जगह उसे यही कहा गया, “यहां हिजड़ों के लिए कोई काम नहीं है.”काम न मिलने से परेशान होकर उसने रेलगाड़ियों में भीख माँगना शुरू कर दिया, लेकिन यह काम भी नहीं चल पाया और एक दिन पुलिस ने पकड़ कर बहुत पीटा.
इस बीच उसने एक और परीक्षा दी और पुणे के सिंबॉयसिस में एडमिशन मिल गया, लेकिन चार लाख की सालाना फीस के लिए उसे फिर से बार गर्ल और यौन-कर्मी का काम करने पर मज़बूर होना पड़ा.इस बीच एक दिन वह बीमार पड़ी. जाँच में एचआईवी संक्रमण की बात सामने आई. ज़िंदगी से निराश हो वह अपने किन्नर गुरु के पास गई. वहीं 2009 में उसकी मुलाक़ात मैत्री फ़ाउंडेशन की मीरा शान से हुई और अंततः उसने फ़ाउंडेशन में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए काम करना शुरू कर दिया.
फिर एक दूसरी संस्था में स्टेट कम्युनिटी एडवाइज़र के तौर पर उसने ट्रांसजेंडर मैपिंग का काम शुरू किया. एक दूसरी संस्था ने उसे छत्तीसगढ़ में बतौर स्टेट एडवोकेसी अफ़सर बनाकर भेजा, जहां उसे छत्तीसगढ़ सरकार और हिंदुस्तान फैमिली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट के साथ मिल कर पूरे राज्य में काम करने का अवसर मिला और अब उसे यह नई ज़िम्मेदारी मिली है, जहां वह समाज के सभी लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार के लिए काम कर रही हूं. अमृता कहती है कि उनकी दुनिया बदल रही है, इस दुनिया को भी उनके लिए बदलने की ज़रूरत है…..Next
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