भारत में धार्मिक स्थलों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों में एक समानता है. इन सभी स्थानों पर हम सबको भिखारी जरूर नज़र आते हैं. फटे-पुराने मैले कपड़ों में भीख माँगते इन भिखारियों को कुछ लोग तरस से देखते हैं, कुछ एक-दो का सिक्का देने के लिए अपनी जेबें टटोलते हैं. एक-दो के कुछ सिक्कों को पा ये भिखारी अपने एक या दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेते हैं. परंतु, बिरले ही होते हैं जो भिखारियों को कुछ ऐसा दे देते हैं जिनसे उनका पूरा जीवन ही बदल जाता है.
चेन्नई के एक स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा 11 के 13 युवाओं का एक समूह अपने स्कूल के बाहर एक लड़के और लड़की को भीख माँगते देखता है. उन्हें बुरा लगता है. वो घर जाते हैं. अपनी दिनचर्या से समय निकाल वो सोचते हैं कि वो इन भिखारियों के लिए क्या कर सकते हैं. तभी उनमें से किसी एक के दिमाग में यह बात आती है कि क्यों ना इन भिखारियों के लिए कुछ किया जाए. वो ये बात समूह में बैठे सारे दोस्तों से कहता है. विचार पसंद आता है और निकल पड़ते हैं ये युवा समाज को एक नई दिशा देने. ये अपने मुहल्लों में घूमकर ऐसे भिखारियों को खोजते हैं जो मेहनत कर सम्मानपूर्वक जीना चाहते हैं. शहर के महापौर की सहायता से ये चिन्हित भिखारियों के खून की जाँच करवाते हैं ताकि यह पता चल सके कि वो नशेड़ी हैं या नहीं.
ऐसे ही एक भिखारी थे आर. नागर जो पहले चेन्नई के पेरम्बूर में अयप्पन मंदिर के सामने भीख माँगते थे. वहीं इन्हें किसी मंदिर से खाना भी मिल जाता था. पर ये ज़िंदगी थी ज़िल्लतों की जिसे जीने को वो मजबूर थे. इसका कारण था उनके एक जानने वाले का धोखा, जिसने उनसे पैसे ठग कर उन्हें सब्जी वाले से भिखारी बना दिया था. तीन वर्षों से भीख माँगते इस 52 वर्षीय आदमी को ज़िल्लत भरी ऐसी ज़िंदगी मंजूर न थी, पर उनके लिए तो जैसे सूरज उगता ही नहीं था.
उम्मीद की किरण तब जगी जब युवाओं के उस समूह ने नागर के लिए 2,500 रूपए जमा किए. उन्होंने एक अध्ययन टेबल की व्यवस्था की और उनसे अलग-अलग किस्म की कुछ टॉफी खरीदवाई. उस टेबल पर डब्बों में टॉफी रख आज ये भिखारी उन्हें बेचता है. बिक्री से मिले पैसों से वो सम्मानपूवर्क अपना जीवनयापन करता है.
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इस तरह से बच्चों के उस समूह ने उस इलाके में नागर जैसे 30 भिखारियों की पहचान की है जो काम करना चाहते हैं. युवाओं के उस समूह की सदस्य एम. रौशनी कहती है कि वे ऐसे भिखारियों के लिए सुरक्षा गार्ड जैसी नौकरियाँ ढ़ूँढ़ रहे हैं. इस तरह से 13 लड़के-लड़कियों का ये समूह ‘’भिखारी मुक्त समाज’’ की अपनी परिकल्पना को वास्तविकता में बदल समाज को एक नई दिशा दे रहे हैं. सच ही कहा है किसी कवि ने – माना कि, अँधेरा घना है, पर दीया जलाना कब मना है.
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