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लड़की औरत कब बने?

समाज के मानक हम तय नहीं करते. परंपरा और संस्कृति के आधार पर क्रमवार चलते ये मानक किसने तय किए किसी के पास जवाब नहीं. जब प्रश्न सामने से पूछा जाए तो हम सीधा सा जबाव धर्मशास्त्र और पुरखों से जोड़ देते हैं. लेकिन सच यही होता है कि जवाब किसी के पास नहीं होता. बदलते वक्त के साथ समाज के ढ़ांचों में कई बदलाव आए लेकिन कई जगह हम आज भी रुके हुए हैं. भले ही परंपरा के नाम हम उसका निर्विरोध निर्वहन करते रहे हैं लेकिन हकीकत में वह किसी की जिंदगी को कमजोर बना रही होती है.


women in indiaपुरुष प्रधान भारतीय समाज में एक वक्त था जब महिलाओं की जिंदगी दुश्वार मानी जाती थी. जन्म से ही एक लड़की से धैर्य और सहनशीलता जैसे गुण धारण करने की उम्मीद की जाती थी. लड़की के रूप में जन्म लेने के साथ ही उसकी अग्निपरीक्षा शुरू हो जाती थी. अगर किसी लड़की ने धैर्यहीनता दिखाई तो यह उसका अपराध है. पुरुष की मरजी को (चाहे वह पिता हो, भाई हो, पति या अन्य कोई रिश्तेदार) हर जगह उसके लिए सर्वोपरि मानना, सर्वोपरि रखना पहले से तय होता है. लड़की होने का अर्थ ही मान लिया गया कमजोर होना. वस्तुत: इसके पीछे कोई कारण नहीं लेकिन परंपरा और संस्कृति की दुहाईयां होती हैं. हां, जब वह लड़की से महिला बनती है तो ‘महिला’ के रूप में उसकी पहचान थोड़ी सशक्त मानी जाती है. लेकिन इस ‘लड़की’ और ‘महिला’ बनने के तय मानक भी अजीब हैं जो आज भी हूबहू उसी रूप में चल रहे हैं जो कल थे.


मीडिया पर समाज की सोच और परंपराओं के अनुकूलन का बहुत बड़ा दायित्व होता है. हालांकि आज की मीडिया से पूरी तरह निष्पक्ष नजरिए की अपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन कई मायनों में यह समाज की एक निष्पक्ष सोच बनाने की कोशिश जरूर करती है. बीबीसी हिंदी पर प्रकाशित एक सामाजिक लेख ‘भारतीय मीडिया की मुश्किल: ‘लड़की’ या ‘महिला’?’ भारतीय सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक बार आश्चर्यचकित कर सकती है क्योंकि एक विदेशी मीडिया संस्था होने के बावजूद इसने इस लेख में जो मुद्दा उठाया है वह वास्तव में विचारणीय है.

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किसी भी समाज में स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से उसके निर्माण और उत्थान-पतन के लिए उत्तरदायी होते हैं. लेकिन इनकी भूमिका तब तक महत्वहीन होती है जब तक वे पूर्ण रूप से परिपक्व न हों. ‘लड़की-लड़का’, ‘महिला-पुरुष’ जैसे शब्द एक नजर देखने में एक जैसे लगते हैं लेकिन गहराई से विचार किया जाए तो इसके मायने अलग हैं. हिंदी का ‘लड़की-लड़का’, अंग्रेजी का ‘बॉय-गर्ल’ या हिंदी का ‘महिला-पुरुष’ या अंग्रेजी का ‘मैन-वोमेन’ हालांकि लिंग भेद के शब्द हैं लेकिन शब्दों की गहनता यहीं खत्म नहीं होती. सामाजिक परिपेक्ष्य में ‘लड़का-लड़की’ या ‘महिला-पुरुष’ संबोधनों का प्रयोग भिन्न अर्थों में होता है.


यह गौर करने वाली बात है कि ‘लड़का-लड़की’ या ‘बॉय-गर्ल’ के संबोधन एक अपरिपक्वता की स्थिति जताते हुए प्रयोग किए जाते हैं. गांव-देहात में आज भी किसी अवयस्क की गलतियों को ‘लड़का-बच्चा’ बोलकर माफ कर दिया जाता है. साफ शब्दों में, ‘लड़का-लड़की’ संबोधन ही अवयस्कता का सूचक है. विश्व के अन्य हिस्सों में भी अलग-अलग भाषाओं के साथ सामान्यत: यह इसी रूप में प्रयोग किया जाता है जैसे अंग्रेजी का ‘बॉय-गर्ल’ संबोधन किसी अवयस्क के लिए प्रयोग किया जाता है जबकि परिपक्व के लिए ‘मैन-वोमेन’ संबोधन प्रयोग होता है.


भारतीय समाज में यह एक गौर करने वाली बात है कि एक लड़की तब तक महिला नहीं कहलाती जब तक उसकी शादी न हो जाए. भले ही उसकी शादी 30-35 साल में क्यों न हो वह इससे पहले समाज द्वारा ‘लड़की (अवयस्क)’ ही संबोधित की जाती है और भले ही उसकी शादी 5 साल में (बाल विवाह जब होता था) क्यों न हो वह हर किसी के लिए औरत बन जाती है. परिपक्वता और अपरिपक्वता का यह मानदंड लड़कों के संदर्भ में अलग है. एक लड़का जैसे ही एक दायरे से आगे बढ़ता है वह हर किसी के लिए ‘पुरुष’ या ‘आदमी’ बन जाता है. यह एक प्रकार से भारतीय समाज की परंपरा बन चुकी है जिसकी आज भी गहरी पैठ है, बिना इसका महत्व जाने. आप खुद ही ध्यान दीजिए आम बोलचाल में घर या बाहर साधारणतया हम-आप भी इसके आदी हैं. नौकरी कर रही लेकिन 30 साल की कोई अविवाहित लड़की अगर कुछ अच्छा या बुरा करती है तो उसके लिए हमारे धिक्कार के शब्द होते हैं, “कैसी लड़की है!”; प्रशंसा या निंदा के शब्द होते हैं, “अच्छी लड़की है या बुरी लड़की है”. किसी भी अंदाज में उसके लिए औरत या महिला शब्द का प्रयोग नहीं होता. लेकिन एक अविवाहित लड़के के लिए कहानी दूसरी होती है. समान अर्थों में ‘कैसा आदमी है!’; ‘अच्छा आदमी है; बुरा आदमी है’ जैसे बोल होते हैं.

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इस प्रकार हम एक प्रकार की अबोध की अवस्था में भी ‘लड़का और लड़की’ के मानक तय कर देते हैं. लड़की कितनी भी वयस्क क्यों न हो जाए बिना पुरुष के साए के हमेशा अवयस्क ही है और लड़का जैसे ही घर-परिवार की जिम्मेदारियां उठाने की स्थिति में पहुंचता है वह ‘लड़का (अपरिपक्व) से आदमी (परिपक्व)’ बन जाता है. हालांकि भारतीय कानून 18 साल के बाद लड़की और 21 साल के बाद लड़के को परिपक्व कहलाने का अधिकार देती है और इस परिपक्वता के आधार पर दोनों को समान रूप से अपने फैसले लेने का अधिकार भी देती है लेकिन समाज में एक अविवाहित महिला उम्र के ढ़लते पड़ाव पर पहुंचने तक हर किसी के लिए ‘लड़की’ ही होती है (अपरिपक्व). शायद हमने इस पर कभी सोचा नहीं, लेकिन यह भी भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के लिए निर्धारित दोहरे मानदंडों का ही एक रूप है.


अगर परंपराओं की बात करें कल शायद यह परंपरा इसलिए बनाई गई हो क्योंकि तब के सामाजिक ढ़ांचे में स्त्रियां पूरी तरह पुरुषों पर ही निर्भर होती थीं. शादी से पहले पिता और भाई पर निर्भर रहने वाली लड़की को पति से जुड़ने के बाद ही अपने फैसले लेने का अधिकार मिलता था. पर लड़का जैसे ही कमाऊ हो जाए उसे परिवार के फैसले करने का अधिकार मिल जाता था जो आज भी है. शायद इसीलिए महिलाओं के लिए उस वक्त लड़की और महिला कहलाने के मानदंड इस प्रकार तय किए गए होंगे. वस्तुत: आज स्थिति सर्वथा भिन्न है. आज लड़कियां लड़कों के समान ही आत्मनिर्भर हैं. कई मामलों में शादी से पहले भी वह अपने पूरे मायके परिवार का वहन करती है. लेकिन परिपक्वता की श्रेणी में वह फिर भी समाज की नजर में लड़की ही होती है, ‘लड़की’ जो अपरिपक्वता का बोध देते हुए उसके हर फैसले को महत्वहीन की श्रेणी में ला खड़ा करता है.


सामान्य अवस्था में हालांकि इससे किसी फायदे-नुकसान का आंकलन नहीं होता लेकिन सामाजिक संदर्भ में कई बार शायद यह महिलाओं को कमजोर दर्शाते हुए उसके लिए सामाजिक हिंसा को बढ़ाता है. बलात्कार जैसे मामलों में इसका प्रभाव उल्लेखनीय हो सकता है. शायद सामाजिक रूप से महिलाओं को कमजोर समझने की पुरुषों की सोच को यह बल देता हो. हालांकि पूर्ण रूप से इस सोच के प्रभाव को आंका नहीं जा सकता लेकिन आज जब महिलाओं के प्रति हिंसा बढ़ रही है और उसके प्रति सामाजिक रवैया उसे मजबूत दिखाने की स्थितियां पैदा करने की मांग कर रहा है, इस संदर्भ को नकारा नहीं जा सकता.

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