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वह तालिबान से भागती रही लेकिन मौत ने उसका पीछा नहीं छोड़ा

वो बंगाल के एक संभ्रांत और शिक्षित परिवार से ताल्लुक रखती थी, उसकी आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे और अपने प्यार को पाने की एक ऐसी चाहत जो उसे भारत की सीमा से कहीं दूर अफगानिस्तान तक ले गई. लेकिन किसे पता था कि जिस व्यक्ति को वह अपना शौहर बनाकर उसके साथ वह अफगानिस्तान जा रही है एक दिन वही, उसका परिवार, यहां तक कि पूरा समुदाय ही उसकी जान का दुश्मन बन जाएगा. लाख कोशिशों के बाद वह उस पिंजरे से भाग तो गई लेकिन सालों बाद ही सही उसके शिकारी ने अपना शिकार ढूंढ़ ही लिया और फिर वही किया जो शिकारी अपने पंजे में आए शिकार से करता है.


यह कहानी है सुष्मिता बनर्जी की, जिन्होंने एक आम औरत की तरह अपनी आंखों में प्यार और विवाह के सपने सजाए थे. अफगान के एक व्यापारी से विवाह कर वह अपना मुल्क छोड़कर अफगानिस्तान चली भी गई. वहां जाकर उसे पता चला कि जिस व्यक्ति से विवाह कर वह अफगानिस्तान आई थी उसमें उसका साथ निभाने की हिम्मत ही नहीं थी. शादी के कुछ समय तक उनका जीवन सुखमय बीता लेकिन जब अफगानिस्तान में तालिबान हावी होने लगा तो कट्टरपंथी तालिबान के अनुसार जीवन जीना उनके लिए दुभर हो गया था. पढ़ी-लिखी महिला होने के बावजूद तालिबान के प्रभाव तले घुट-घुटकर सांस लेना उसे मंजूर नहीं था और इसीलिए कई बार सुष्मिता बनर्जी ने उस जगह से भागने की कोशिश भी की लेकिन उसकी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.


वर्ष 1994 में पहली बार सुष्मिता बनर्जी ने तालिबान के पंजे से खुद को छुड़ाने की कोशिश की थी लेकिन दुर्भाग्यवश वह उनके चंगुल से भाग नहीं सकी. लेकिन अगले ही वर्ष 1995 में सुष्मिता अपने पति और तालिबान के चंगुल से भाग निकलने में कामयाब हो गई. वर्ष 2003 में उसकी मौत उसे वापस अपने पति के पास अफगानिस्तान ले गई और कुछ संदिग्ध चरमपंथियों ने उसकी घर में ही घुसकर हत्या कर दी.


वर्ष 2003 में प्रदर्शित हुई मनीषा कोइराला अभिनीत फिल्म ‘एस्केप फ्रॉम तालिबान’ सुष्मिता बनर्जी के जीवन पर ही आधारित है. वर्ष 1998 में सुष्मिता बनर्जी का एक लेख आउटलुक में पब्लिश भी हुआ था, जिसमें उन्होंने अपने साथ घटित हर वारदात, हर दुख भरी दास्तान का वर्णन किया था. सुष्मिता ने अपनी कहानी में लिखा था कि जब वह पहली बार घर से भाग कर अफगानिस्तान में स्थित भारतीय दूतावास गई थीं तो वहां उनके देवर उन्हें यह कहकर वापस ले गए थे कि वे सुष्मिता को भारत भेज देंगे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. सुष्मिता घर में ही कैद हो कर रह गई और इसके अगले ही वर्ष उन्हें तालिबान से भागकर भारत आने का मौका मिल गया.


अब इसे सुष्मिता बनर्जी का दुर्भाग्य कह लीजिए या नियति लेकिन उन्होंने अपने पति के पास वापस अफगानिस्तान जाने का निर्णय कर लिया. जब तालिबान को इस बात की भनक लगी कि वह वापस आकर एक स्वास्थ्यकर्मी के साथ महिलाओं की दशा को सुधारने के लिए भी काम कर रही हैं तो कुछ चरमपंथी तालिबान ने उन्हें उन्हीं के घर में मार दिया.


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