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किसी लड़की की इज्जत से खेलना मामूली अपराध नहीं है

निर्भया बलात्कार केस के नाबालिग अभियुक्त को तीन साल की सजा देकर किशोर न्यायालय ने खानापूर्ति की औपचारिकता तो पूरी कर ली है लेकिन पीछे-पीछे एक अहम सवाल छोड़ दिया है कि क्या बलात्कार जैसे अपराध को उम्र के पैमाने पर मापकर देखा जाना उचित है?


हालांकि एक नाबालिग को तीन वर्ष के कारावास की सजा देना अपने आप में एक कड़ी सजा मानी जाती है लेकिन इस केस की गंभीरता और जघन्य अपराध के स्वरूप को समझने के बाद यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कोई भी अधिकतम सजा उस अपराधी के लिए रियायत के ही समान मानी जाएगी. खैर निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या केस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तो अपने एक कथन में कहा था कि अदालतों को बलात्कार के मामलों को गंभीरता से हल करना चाहिए. ऐसे मामलों में अपराधी की उम्र, उसकी स्थिति, शारीरिक अवस्था को अहमियत नहीं देनी चाहिए क्योंकि बलात्कारी पर किसी भी तरह का रहम नहीं करना चाहिए, लेकिन यह आदेश नहीं मात्र निर्देश है जिसपर अमल कब होगा, होगा भी या नहीं यह बात अभी तक साफ नहीं है.


हमारा समाज महिलाओं को सम्मान देने में हमेशा ही कोताही बरतता रहा है, कभी उसे घरेलू हिंसा का शिकार बनाया जाता है तो कभी कोई सिरफिरा आशिक उसके चेहरे पर तेजाब डालकर खुद को संतुष्ट कर लेता है. विडंबना यह है कि अगर दो परिवारों में रंजिश हो तो सबसे पहला हमला महिलाओं की आबरू पर होता है, प्रेम में सफलता ना मिले तो इसके लिए महिला को दोषी ठहराकर उसकी जिन्दगी को मौत से भी बदतर बना दिया जाता है. इतना ही नहीं अगर पत्नी दहेज लाने में सफल ना हो पाए तो भी उसके साथ अमानवीय बर्ताव क्लिया जाता है. इतना सब कुछ होने के बाद भी उसके हक में आवाज उठाने वाला कोई नहीं सामने आता. इसे उसकी नियति मानकर नजरअंदाज कर दिया जाता है और अंत में कुछ बचता है तो ऐसी सांत्वना जिसके लिए उसे कभी भी हकदार होना ही नहीं चाहिए था.


वर्तमान भारतीय परिदृश्य पर नजर डाली जाए तो महिलाएं कहीं भी, किसी भी समय खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पातीं. उन्हें हर समय बस यही डर सताता रहता है कि कहीं किसी की गंदी नजरें उन्हें घूर तो नहीं रही, उनका पीछा तो नहीं कर रहीं…. इस बात से शायद ही कोई नकार सकता है कि  देश के महानगरों, जिन्हें काफी मॉडर्न माना जाता है, में ही महिलाएं हर समय अपनी आबरू को लेकर असुरक्षित रहती हैं.


दामिनी या निर्भया बलात्कार मामला हमारे समाज की नींद खोलने, एक क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए काफी था लेकिन ना जाने क्यों इसमें भी आरोपी की उम्र का बहाना बनाकर उसे प्रतीकात्मक सजा दे दी गई. इन तीन सालों में इस अपराधी का क्या होगा यह तो नहीं पता लेकिन हां तीन साल बाद वह एक शातिर अपराधी के तौर पर अपनी पहचान स्थापित करने में जरूर सफल हो जाएगा.


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