तमाशाबीन बन गए हैं हम, कभी-कभी ऐसा लगता है. जिस चीज की कभी दरकार नहीं की, उसे देखना पड़ता है. जिसे सुनना-देखना कभी पसंद नहीं किया, उसे ही देखना पड़ता है. जिंदगियां लील रही हैं हर दिन एक नए घाव के साथ, पर तमाशबीन बनकर ये संगीन खूनी नजारे देखने के सिवा हम कुछ नहीं कर सकते. कुछ कर नहीं सकते, पर देखना, उस पर उठे भावनाओं के बवाल को सहना हमारी मजबूरी है. हमारी मजबूरी है, या क्या जाने क्या करते-करते क्या हो जाए, यह सोचकर उसे अनदेखा कर देना भी शायद हमारी मजबूरी है.
देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में एक, जहां विद्यार्थी पढ़ने के लिए, बस उसका नाम एक बार अपने साथ जोड़ने के लिए मरते हैं, जहां दाखिला लेने के लिए बच्चे तो बच्चे, मां-बाप भी जान लगा देते हैं, जहां जाकर मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य के लिए और बच्चे अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए निश्चिंत हो जाते हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय या जेएनयू में सिर्फ भारत नहीं, वरन् विदेशों से भी बच्चे पढ़ने आते हैं. रोशनी और आकाश की कहानी जिस तरह सामने आई है, दुख और निराशा के आलम में बेबसी का वह मंजर दिखाती है, जहां हम चाहकर भी कुछ न कर सकने की हालत में पहुंच जाते हैं. यह न केवल जेनएनयू के छात्रों की प्रतिष्ठा पर, बल्कि देश की शिक्षा व्यवस्था पर चोट है. लोगों की नजर में हो सकता है यह सिर्फ एक प्रेम प्रसंग का मामला हो, एक सनकी आशिक का मामला हो, विश्वविद्यालय प्रशासन की लापरवाही का मामला हो, लड़कियों की सुरक्षा का मामला हो, पर इससे भी बढ़कर यह मानवता पर कुठाराघात का मामला है जिसे शायद हर कोई नजरअंदाज कर रहा है, सिर्फ इस मामले में नहीं, ऐसे हर मामले में.
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हिंसा की बढ़ती घटनाएं आज सिर्फ नक्सली हिंसा, सीमा विवाद तक सीमित नहीं, आज हिंसा घर की चाहरदीवारी के भीतर भी चरम पर है, खेल के मैदान में भी है, राज्यों के बंटवारे में भी है, परिवारों के विवाद में भी है, पति के अत्याचारों में भी है, पत्नी के आघातों में भी है, प्रेमिका के जज्बातों में भी है, प्रेमी के तड़पते इरादों में भी है, गलियों में भी है, चौराहों पर भी है, झुग्गी-झोपड़ी की गंदगी में भी है, ऊंचे-ऊंचे सभ्य मकानों में भी है. इंसानियत छूटती जा रही हैं रेत की तरह कहीं, पर हम मुद्दा किसी और बात को बना लेते हैं.
रोशनी की जिंदगी क्या थी? आकाश के साथ उसका रिश्ता क्या था? आकाश ने ऐसा क्यों किया? विश्वविद्यालय परिसर में, वह भी बीच कक्षा में ऐसा कैसे हो गया? जैसे सवाल तो हैं, पर इससे भी बड़ा एक सवाल है कि कुल्हाड़ी से वार करने, किसी इंसान को काटने जैसा क्रूर कदम आखिर एक 23 साल के विद्यार्थी ने उठाया कैसे? एक बूढ़ा भी, मानसिक रोगी भी अगर ऐसा कोई हमला करता है, तो मानवता के हर स्तर पर यह निंदनीय है. यहां तो एक युवा छात्र ऐसा कर जाता है और वह भी विद्या के मंदिर में, पर इसपर कोई बहस नहीं हो रही. भले ही आकाश ने रोशनी पर हमला करने के बाद खुद को भी खत्म कर लिया पर दो जिंदगियों को इतनी क्रूरता से लीलने का हौसला आकाश के पास आखिर आया कहां से?
वक्त दिनों दिन क्रूर से क्रूरतम होता जा रहा है. छोटी-छोटी बातों पर हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं. छोटी-छोटी बातों पर पहले लड़ाइयां होती थीं, मारपीट होती थी, आज खून-खराबा आम बात है. जिंदगियों की कीमत नजरों में घटती जा रही है. प्रेमिका ने धोखा दिया, उसपर एसिड फेंककर उसकी जिंदगी हमेशा के लिए तबाह कर देंगे. पत्नी पर शक हुआ, उसे टुकड़ों में काटकर फेंक देंगे. हवस-बलात्कार की घटनाएं अपने चरम पर हैं. क्रूरता की हदें पार हो रही हैं. लोग मानवता की हदें भूल रहे हैं. जरूरत है इनपर लगाम कसने की.
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कानून में यूं तो हर गुनाह की सजा है पर आकाश जैसे इंसान को क्या सजा देगा कानून? एसिड फेंककर जो जिंदगी भर के लिए लड़कियों को एक अपाहिज जिंदगी, एक शापित जिंदगी जीने को मजबूर करते हैं, वैसे इंसान को क्या सजा देगा कानून? कानून गुनहगार को उसके गुनाहों के लिए सिर्फ सजा दे सकता है, लेकिन उसके गुनाहों के कारण जिसकी जिंदगी बर्बाद हो जाती है, उसकी जिंदगी को फिर से पहले की तरह बनाने का कोई हल नहीं है कानून के पास. हम हक की बात करते हैं. आकाश इस दुष्कृत्य के बाद खुद भी सल्फास की गोली खाकर मर गया, वरना वसंत कुंज बलात्कार घटना और गुड़िया बलात्कार मामले की तरह आज रोशनी के अधिकारों के लिए, रोशनी को इंसाफ दिलाने के लिए भी पूरे देश में धरना प्रदर्शन हो रहा होता. लेकिन इन हालात में आज रोशनी को इंसाफ कैसे दिलाएंगे? क्या दामिनी के गुनहगारों को फांसी पर चढ़ाकर दामिनी को इंसाफ मिल जाएगा? नहीं, नहीं मिलेगा इंसाफ. बेकसूर एक जिंदगी को, बेवजह एक नारकीय पीड़ा से गुजरना पड़ा, बेवजह अपनी जान गंवानी पड़ी. यह दर्द और पीड़ा सिर्फ दामिनी को नहीं, उसके घरवालों के लिए भी थी, है और हमेशा रहेगी, उसे किसी भी सूरत में मिटाया नहीं जा सकता. वसंत के पांचों गुनहगारों को कितनी भी सजा देकर उसे घटाया नहीं जा सकता. सच यही है, मानो या न मानो!
कहने का अर्थ बस इतना है कि मानवीयता का स्तर घटता जा रहा है. यही वजह है कि समाज में ऐसी झकझोड़ देने वाली हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं. आज की युवा पीढ़ी कल का भविष्य हैं, यह युवा पीढ़ी भी इन अमानवीय व्यवहारों से बहुत अधिक प्रभावित हो रही है. छोटा सा घाव भी अनदेखी में कैंसर का रूप ले लेता है और फिर जान देना आपकी मजबूरी है, चाहे खुशी-खुशी से दो, या रोकर. हमारे समाज को इस उदाहरण को आत्मसात करने की जरूरत है. बच्चे बिगड़ रहे हैं, युवा पीढ़ी भटक रही है, यह कहने से न कुछ सुधरने वाला है, न कुछ बदलना है. जरूरत है समूचा समाज इसपर गंभीरता से विचार करे और युवा पीढ़ी को संवेदहीन होने से बचाए.
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