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शौकिया पैदा ये भुखमरी के हालात

अगर संसाधनों की कमी होती तो समझ आती पर यहां तो साधन भी सभी हैं, कागजों पर भविष्य का सारा खाका भी खिंचा हुआ है. भविष्यवाणियां भी उसके लिए हमेशा यही होती रहती हैं कि वह अब पहले से बेहतर स्थिति में होगा. पर हर बार जब परिणाम आता है, तो पता चलता है कि हालात सुधरने तो दूर, वह तो पहले से और बीमार हो गया है. पता चलता है कि बेहतरी के लिए किए उसके सारे उपाय बेकार हैं. किसी को भी उसकी इस हालत का कारण समझ नहीं आता. आखिर इतने उपाय करने के बावजूद उसकी इस बीमारी का कारण क्या है. क्या है जो दीमक की तरह दिनों-दिन अंदर ही अंदर उसे खत्म करता जा रहा है? आखिर बेवजह वह आत्महत्या क्यों कर रहा है?


मुद्दा

imagesचीन के बाद भारत एशिया का दूसरा बड़ा देश है. एशिया के ये दोनों ही देश विश्व की बड़ी शक्ति बनने की होड़ में लगे हैं. इसके लिए सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर तमाम उपाय किए जा रहे हैं. हम बड़े शान से कहते हैं कि भारत अब बड़ी तेजी से विकास कर रहा है. पर हम विकास कहां कर रहे हैं? उद्योगों में? क्या उद्योग विकसित करना ही विकास का अर्थ होता है? अभी-अभी कनाडा के एक गैर सरकारी संगठन ‘माइक्रोन्यूट्रिएंट इनिशिएटिव’ की ओर से आई एक रिपोर्ट आजकल मीडिया में चर्चा का विषय बनी हुई है. रिपोर्ट कहती है कि विश्व भर में कुल कुपोषित लोगों में 40 प्रतिशत आबादी भारत में है. गौर करने वाली बात है ‘कुल कुपोषित लोगों का 40 प्रतिशत हिस्सा भारत में बसता है’. इस आंकड़े के बाद आप जरूर सोचेंगे कि यह बुरा है. हां, बुरा तो है, पर उससे भी बुरा और शर्मनाक रिपोर्ट का वह हिस्सा है जो कहता है कि भारत के पास इसे दूर करने के सभी जरूरी उपाय हैं, पर उसे सही तरीके से लागू न करने के कारण यह कुपोषण इस आंकड़े तक पहुंच गया है. माइक्रोन्यूट्रिएंट इनीशिएटिव के अध्यक्ष और वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ एमजी वेंकटेश मन्नार कहते हैं कि भारत के पास इन्हें सुधारने के सरकारी उपाय किए गए हैं. पर समस्या यह है कि यह उपाय सुधार कार्यक्रमों के रूप में कई मंत्रालयों जैसे महिला और बाल विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास आदि में बंटा हुआ है. अगर हम गहराई से सोचें, तो समझ आता है कि समस्या सच में हमारी नीतियों में ही है. पर क्यों? आखिर हमें तो विकास चाहिए, फिर ये लापरवाही क्यों?

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जमीनी हालात

किसी भी देश के लिए उसके आज के बच्चे ही उसका कल का भविष्य हैं. इसलिए हर बच्चा उसके लिए उतना ही जरूरी होना चाहिए जितना उसकी हर आर्थिक-व्यापारिक नीति. पर हमारी विकास नीतियों को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि सरकार और समाज इसके लिए जागरुक हैं. कुपोषण, कुपोषण आधारित बीमारियां यहां आज भी आम हैं. 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 5 साल की उम्र तक के बच्चों की मौत में भारत के आंकड़े सबसे ज्यादा थे. 2011 में यहां सबसे अधिक 16.55 लाख 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौतें हुईं, जबकि चीन में 2012 में यह आंकड़ा मात्र 2.49 लाख था. मातृ सुरक्षा के नाम पर भी सारी योजनाएं बस फाइलों में ही दर्ज हैं. हाशिए पर चलती फाइलों में बंद योजनाएं जमीनी स्तर पर मात्र कुछ ही प्रतिशत काम कर पाती हैं.

कारण

आंकड़ों की बात करेंगे तो बात कभी खत्म ही नहीं होगी. हर जगह योजनाएं बनी पड़ी हैं, सरकार ने फंड भी जारी किए होते हैं, पर जमीनी स्तर पर जब उससे सुधरे हालात और परिणामों को देखा जाता तो पता चलता है कि परिणाम लगभग वही हैं जो पहले थे. मतलब सुधार दिखता नहीं. यहां फिर वही सवाल उठता है, क्यों? आखिर कमी कहां रही? क्यों इतने प्रयासों के बाद भी हालात सुधरे नहीं?

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जवाब तलाशने के लिए हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं, बस एक बार इस पर सोचने की जरूरत है. सबसे पहला मुद्दा सरकारी प्रयासों के ज्यादा सकारात्मक परिणाम न दिखने पर अगर गहराई से सोचें तो पता चलेगा कि विकास के लिए सरकार के अभियानों में कई सीढ़ियां हैं. सरकार फंड जारी करती है, राज्यों तक आता है, फिर उसके निचले ऑफिस में, फिर उससे नीचे, फिर उससे भी नीचे, इतनी सीढियां तय कर जब तक वह फंड उसके असली हकदार तक पहुंचता है, वह न के बराबर होता है. हालांकि यहां फंड से इतर भी कई जरूरी बातें हैं, पर फंड इसलिए जरूरी है क्योंकि गरीबी, कुपोषण, भुखमरी, शिक्षा या कोई भी मुद्दा हो, पैसा ही हर जगह आधार है. अगर कोई खाने के अभाव में कुपोषण का शिकार है तो बात तो पैसे की ही है. पैसा होगा तो वह जरूर खाएगा. सरकार अगर इनके लिए कोई योजना तैयार करती है, तो भी फंड सबसे जरूरी चीज होती है, सरकारें बड़ी शान से कहती हैं कि हमने अमुक विकास के मद के लिए इतने फंड जारी किए. पर वह फंड जिसे मिलना चाहिए, उसकी जगह हर किसी को मिलता है. राजीव गांधी ने भी इस ओर ध्यान दिलाया था. पर बात वही होती है, कहने को तो हर कोई कहता है, पर असल में करता कौन है. सरकार योजनाएं कई बनती हैं, सच है, पर उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कुछ अलग नहीं करती, यह भी सच है. किसी भी प्रकार की योजना में यही हाल है. महिला और बाल विकास भी इन्हीं में से एक मुद्दा है और सरकारों के लिए अलग से कोई बहुत बड़ा, विशेष मुद्दा नहीं होता.

पर इसमें दोष किसका है? सच है कि सरकारें अपनी उपलब्धियों में इन योजनाओं को जोड़ देती हैं. पर आखिरकार हम उनका परिणाम क्यों नहीं पूछते. आखिर हम भी तो बस योजनाएं ही देखते हैं. माइक्रोन्यूट्रिएंट इनीशिएटिव की यह रिपोर्ट कहती है कि 2005 के बाद राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया ही नहीं गया. मतलब अगर आज इस मुद्दे पर बात करेंगे तो पुराने आंकड़ों पर. सरकार हमें योजनाएं बताएगी कि 2005 के ऐसे हालातों के मद्देनजर ये-ये, इतनी योजनाएं बनाई गईं, पर उन योजनाओं को बनाने के बाद सुधार कितना हुआ, हम कहां पूछते हैं. जाहिर है, हम बस ऊपरी तह देखते हैं, सरकार भी योजनाओं की तह में लपेटकर अपनी खूबसूरत प्रोफाइल दिखाती है, और हम वोट दे देते हैं. मतलब वोटों की राजनीति पर आकर बात खत्म हो जाती है.

दोष सिर्फ सरकारों का नहीं है. दोषी हमारी गैर-जिम्मेदाराना सोच है. अमूमन हम विकास के मुद्दे बस औद्योगिक विकास को मानकर चलते हैं. पर उस औद्योगीकरण को बढ़ाने के लिए मैन पॉवर तो होना चाहिए. जहां के बच्चे कुपोषण में पल रहे हैं, उनसे आप भविष्य में भरपूर शारीरिक और मानसिक क्षमता रखने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. बच्चों की छोडिए, जहां माएं ही कुपोषण की शिकार हैं, वहां आप स्वस्थ बच्चों की उम्मीद ही कैसे कर सकते हैं. सारी बातें अलग-अलग हैं, पर कहीं न कहीं सब एक-दूसरे से जुड़ी हैं. एक की कमी दूसरे को अक्षम बना सकती है. सरकारी योजनाओं में भी यही है. सिर्फ योजनाएं बनाने से क्या होगा, इन योजनाओं को अधिक से अधिक सकारात्मक परिणाम के लिए उपयोग कैसे करना है, यह भी तय करना होगा. इतना तो तय है कि इन जमीनी समस्याओं को हल किए बिना न हम विकास का दावा कर सकते हैं, न सचमुच विकास की उम्मीद कर सकते हैं. और यह भी कि अगर इस इतनी योजनाएं बनाकर, इतने पैसे लगाकर भी सिर्फ देखरेख और सही परिचालन के अभाव में ये समस्याएं आज भी इतने वृहत स्तर पर हैं, तो ये कल भी ऐसी ही रहेंगी. ऐसे में ये जानबूझकर, बिना किसी कारण आत्महत्या करना ही हुआ है.


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