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क्या दुबारा उसी गर्त में जाना है?

लड़कियों, बच्चियों की सुरक्षा की तमाम तरह की बातें लगातार हो ही रही हैं, तमाम तरह के सुझाव, वायदे, कानून और न जाने क्या क्या…पर इन सबका फायदा क्या? क्या फायदा है अगर इन सबके बावजूद ये घटनाएं घटने की बजाय और बढ़ती ही रहें? पहले शोर हो रहा था महिलाओं की सुरक्षा का जबकि अब 5-6 साल की छोड़िए, 3 साल की बच्ची भी शारीरिक शोषण से सुरक्षित नहीं है. हाल ही में एक और ऐसी ही दुष्कर्म की घटना सामने आई और एक बार फिर स्त्री नाम का यह वजूद हिल गया.


images (1)गुड़गांव में एक छोटी सी बच्ची को लंगर खिलाने के नाम पर ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया गया. इस अमानवीय हरकत के बाद आरोपी बच्ची को मेट्रो स्टेशन के पास फेंककर भाग गया. अब उस मां-बाप की सोचिए जिनकी यह बच्ची होगी. सफदरजंग अस्पताल में भर्ती यह बच्ची आज जिंदगी और मौत से जूझ रही है. डॉक्टरों ने इसके गर्भाशय पर गहरी चोट बताई है. शायद इसे पढ़ते हुए आप गुड़िया बलात्कार केस याद कर रहे होंगे. हां, हर किसी को इसे पढ़कर वह केस याद आएगा, पर जाने ये वहशी किस मिट्टी के बने होते हैं कि न इन्हें किसी कानून का डर याद आता है, न मासूम का दर्द. इन हैवानों का क्या किया जाए आखिर? किस तरह इन्हें समाज से मिटाया जाए? किस तरह इन मासूमों को इनकी घृणित सोच से बचाया जाय?

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आज बढ़ते विकास के साथ महिलाओं के विकास की भी बड़ी चर्चा होती है. आज गर्भ में बेटी जानकर उसका गर्भपात करवाने वाले परिवारों की तुलना में लगभग समान संख्या में ऐसे परिवार भी होंगे जो गर्भ में बेटी जानकर भी खुश होते हैं, उसके सुखद भविष्य के लिए सपने संजोते हुए उसके लिए तैयारियां करते हैं. इन मां-बाप की चिंता यह नहीं है कि बेटी की शादी के लिए दहेज जमा करना पड़ेगा, न यह कि बेटी बड़ी होकर कहीं जाति से अलग शादी न कर ले, मां-बाप की मर्जी के बिना किसी लड़के से इश्क न लड़ाए, लेकिन इन मां-बाप की चिंता इनकी दुविधा बन गई है. आज के मॉडर्न मां-बाप अपनी बेटियों की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते. बेटों की तरह समान रखते हुए, वे उसे उसी शान से पढ़ाते, हर सुविधा देते हैं, जो वे बेटे को देते हैं. पर उनकी दुविधा आज यह है कि इस असुरक्षित समाज में वे बेटियों को उनकी पसंद से हर काम करने की आजादी दें तो बेचारी उनकी बेटियों को कब किस राक्षस के पैरों तले कुचल दिया जाएगा, पता नहीं; पर दूसरा रास्ता भी वे अपनाते हैं, अगर वे बेटियों को घर के अंदर भी कैद रखें, तो वे कब तक उसे सुरक्षित रख पाएंगे. आज तो बेचारी उनकी बेटियां कहीं सुरक्षित नहीं. घर पे रिश्तेदार तक शोषण करने से नहीं चूकते. बाहर भी भेड़िए घात लगाकर बैठे हैं. आखिर ये बेटियों के मां-बाप जाएं तो जाएं कहां? फिर क्या गलत है अगर वे कहें कि अपनी बेटियों को यूं तिल-तिल कर मरने के लिए इस दुनिया में लाने तो अच्छा है कि उसे जन्मने से पहले ही मार दूं? फिर क्या गलत है अगर महिलाएं पुरुषों के दोयम दर्जे की सोच को कोसें? फिर क्या गलत है अगर यह मां-बाप बेटियों को बोझ समझें?


महिला सुरक्षा तो छोड़िए अब, छोटी-छोटी बच्चियां तक सुरक्षित नहीं हैं? कभी रिश्तेदार, कभी पड़ोसी, कभी स्कूल टीचर, हर रूप में बस भेडियों की निगाहें स्त्री के रूप को घूर रही हों जैसे. भारतीय समाज महिलाओं से जुड़ी कई कुप्रथाओं से लड़कर आज इस मुकाम पर पहुंचा है कि यहां कल्पना चावला से लेकर इंदिरा नूई जैसी महिलाएं भी हैं. पर जिस आधुनिक शोषण के ढर्रे पर समाज चल पड़ा है, यह कहना बहुत गलत नहीं होगा कि महिलाओं को वापस उसी गर्त में धकेलने की पहल है यह. समूचे समाज को ऐसे लोगों को कानूनन सजा दिए जाने से अलग भी समाज से बहिष्कृत करने का कदम उठाना होगा, वरना सुरक्षा के नाम पर महिलाएं फिर उसी गर्त में दबा दी जाएंगी जहां से बड़ी मुश्किल से वह निकलकर आई हैं.



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