जिधर देखो उधर बस महिलाओं की ही चर्चा है. महिला अधिकार, महिला कानून, महिला सशक्तिकरण, महिला पुलिस में, महिला संसद में, महिला मीडिया में और महिला राजनीति में भी. शायद पुरुष-श्रेष्ठता की भावना रखने वाले लोग इससे कभी उकता भी जाया करते होंगे. पर जरा सोचिए आप कहीं जाएं और वहां बस महिलाएं ही हों तो…..बॉस भी महिला, ऑफिस बॉय की जगह ऑफिस गर्ल भी महिला, ऑफिसर भी महिला, क्लर्क भी महिला…..!! आप कहेंगे हे भगवान, यहां तो पुरुषों का अस्तित्व ही नहीं है. अगर आप सोच रहे हैं कि ऐसा सिर्फ बातों में ही होगा, तो गलत हैं. जल्द ही भारत में के हर कोने, उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, हर जगह आपको कम से कम एक ऐसी जगह मिलेगी जहां बस महिलाएं होंगी. आप वहां जा जरूर सकते हैं, पर वहां की विधि-व्यवस्था में आप कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते.
वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने महिलाओं का बैंक खोलने की घोषणा की है. इस बैंक में उच्च स्तर के ऑफिसर से निचले स्तर के क्लर्क तक हर कर्मचारी, महिला कर्मचारी होंगी. हालांकि वित्त मंत्री पी चिदंबरम इस बार के बजट सत्र में ही अक्टूबर 2013 तक महिला बैंक लाने की घोषणा कर चुके हैं. 1000 हजार करोड़ रुपए की शुरुआती राशि से देश के हर क्षेत्र (उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, मध्य और पूर्वोत्तर) में कम से कम एक ब्रांच खोलने की इस घोषणा को अमली जामा पहनाने के बाद यह देश का पहला महिला सरकारी बैंक कहलाएगा. इसी कड़ी की शुरुआत में बैंक ऑफ इंडिया ने धनबाद में पहले महिला बैंक का उद्घाटन किया है.
महिलाओं की स्थिति सुधारने के सरकारी-गैर सरकारी प्रयास होते रहे हैं. महिला बैंक खोलने की यह मुहिम भी शायद इसी का हिस्सा हो. पर सवाल यह है कि क्या महिला बैंक वास्तव में महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक सही प्रयास होगा? महिला सशक्तिकरण के नाम पर तो इसे शुरू किया जा रहा है, पर क्या वास्तव में यह महिला सशक्तिकरण में सहायक होगा?
हमारे देश की मुश्किल यह है कि महिलाओं को लेकर शोर बहुत होता है. जैसे धर्म को लेकर दंगा सी स्थितियां आ जाती हैं, महिला-पुरुषों को लेकर भी कुछ ऐसी ही स्थिति होती है. महिला बचाओ अभियान चल पड़ा है. भला क्यों? महिलाओं की दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए तमाम तरह की बातें होती हैं पर उनमें महिला कहीं नहीं होती. खैर यहां बात हो रही है महिला बैंकों की प्रासंगिकता की. महिला बैंक खोलने के पीछे तर्क यह है कि यह महिलाओं की बैंकिंग सुविधाओं में सहभागिता बढ़ाएगा. महिलाओं को सस्ते दर पर लोन मिलेंगे. यह बैंक घरेलू स्तर पर व्यापार शुरू करने वाली महिलाओं को आसानी से ऋण उपलब्ध कराएगा जो महिला सशक्तिकरण में आवश्यक है. पर जरा यह भी तो सोचिए कि कितनी महिलाएं घरेलू स्तर पर व्यापार शुरू करती हैं, और इस बैंक का लाभ उठाएंगी. बैंकिंग लोन आदि सुविधाओं के लिए अक्सर जो शर्तें रखी जाती हैं, मसलन कोई एसेट गिरवी रखना, ऐसी शर्तें पूरी कर पाने में महिलाएं अक्सर अक्षम होती हैं क्योंकि वे उनके पास अपना कहने को कोई एसेट होता ही नहीं. अक्सर वह या तो महिला के पति या पिता के नाम होता है. ऐसे में अगर महिला बैंक महिलाओं को 1 या दो प्रतिशत छूट के साथ ऋण उपलब्ध करवा भी देते हैं तो कितनी महिलाओं का फायदा होगा. इसका फायदा भी उन्हीं महिलाओं को मिलेगा जो सामाजिक स्तर पर अच्छे हालात में हैं. दोयम दर्जे की महिलाएं, जिन्हें वास्तव में मदद की जरूरत है, सशक्तिकरण उपायों की जरूरत है, इसका लाभ नहीं ही ले सकेंगी.
महिलाओं के सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा महिलाओं के सशक्तिकरण की गलत सोच है. इसकी स्थिति भी कुछ जाति के आधार पर आरक्षण जैसी हो गई है. कई पिछड़ी जाति के लोग अच्छी स्थिति में होने के बावजूद इसका बेमतलब लाभ ले रहे हैं (वास्तव में लाभ भी नहीं ले रहे, एक उपेक्षा को ढो रहे हैं. कई ऐसे लोग हैं जो बहुत बेहतर होने के बाद भी, अपनी मेहनत के दम पर कुछ बड़ा पाने के बाद भी, लोगों की यह सोच उन्हें दुखती है क्योंकि लोग सोचते हैं कि वह आरक्षण के बल पर आगे बढ़ा होगा), और कुछ उच्च जाति के बहुत गरीब लोग भी अपनी गरीबी से उबर पाने को कुछ नहीं कर पा रहे. जातीय आरक्षण के नाम पर किसी अमीर को भी अपनी लाखों की फीस भरने को पैसे मिल जाते हैं, कुछ गरीब उच्च जाति वर्ग फिर भी इतने में संतोष करने को मजबूर हैं. महिलाओं के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. आज महिलाओं की स्थिति पहले से बहुत बेहतर है. पर हां, हर जगह नहीं. कुछ महिलाएं वास्तव में बहुत अच्छी स्थिति में हैं. कुछ महिलाएं आज भी घुटन भरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं.
बहुत जरूरी है कि जैसे आरक्षण में क्रीमी लेयर एक सीमारेखा है, महिलाओं की स्थिति मांपने के लिए भी ऐसी ही कोई इकाई ढूंढ़ी जाए. महिलाओं की स्थिति के लिए भी ऐसा कोई मानक तैयार कर उनके स्तर पर, जो वास्तव में उनकी स्थिति सुधारने में सहायक हो, ऐसा कोई कारगर उपाय तैयार किया जाय. जिसे भूखे मरने की स्थिति हो, उसे मोती देकर उसका पेट नहीं भरा जा सकता. उस भूख में उसमें इतनी ताकत नहीं होगी कि वह उससे पैसे बनाए और खाना खाए. महिला बैंकों के साथ भी यही स्थिति है. पहले महिलाओं को इस काबिल तो बना लो कि वे बैंकों में खाते खुलवाने की स्थिति में आ जाएं. महिला बैंक उन्हें सस्ते दर पर ऋण दे सकता है, उनकी स्थिति नहीं सुधार सकता.
Read Comments