मशहूर निर्देशक ऋतुपर्णो घोष (Rituparno Ghosh) का दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई. भारतीय हिंदी सिनेमा इसे सिनेमा जगत की क्षति मानता है. ऋतुपर्णो घोष ( Rituparno Ghosh) की एक डायरेक्टर की छवि और वास्तविक जिंदगी में एक इंसान की छवि में काफी फर्क है. ऋतुपर्णो घोष (Rituparno Ghosh) पुरुष होकर भी महिलाओं के वेश में रहना पसंद करते थे. अवार्ड समारोह हो या फिल्म सेट ऋतुपर्णो घोष (Rituparno Ghosh) हमेशा महिलाओं के कपड़ों में ही नजर आते थे. वे समलैंगिक थे और इसे स्वीकार करते थे. मीडिया में ऋतुपर्णो घोष (Rituparno Ghosh) की वेशभूषा और हाव-भाव हमेशा विवादित रहा है. ऋतुपर्णो घोष (Rituparno Ghosh) की फिल्मों में भी समलैंगिकता को दिखाया गया है. सवाल यह है कि ऋतुपर्णो घोष जैसा प्रसिद्ध कलाकार और निर्देशक जिसने 12 राष्ट्रीय अवार्ड लिए वह समलैंगिक था. वह यह बात सबके सामने स्वीकार भी करता है पर लोगों को इस पर आपत्ति नहीं होती. सवाल है कि ऐसा क्यों? क्या समाज को समलैंगिकता को शह देना चाहिए? क्या ऐसे रोलमॉडल समाज में स्वीकृत होने चाहिए जो सामाजिक धारा से ही अलग हैं?
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समलैंगिकता(Homosexuality) या समान सेक्स के प्रति आकर्षण आज एक बड़ी बहस का मुद्दा है. यह एक ऐसी सोच है जो आज वृहत स्तर पर समाज की संपूर्ण इकाई को प्रभावित करती है. ऋतुपर्णो घोष (Rituparno Ghosh) ही नहीं फिल्म समुदाय, राजनीति से जुडे कई नामचीन लोग समलैंगिक (Homosexual) हैं. कुछ इसे जाहिर करते हैं, कुछ छुपाते हैं पर सबको पता है कि ऐसा है. आम समाज में भी ऐसे हादसे बढ़ रहे हैं. लोग आज भी इसे स्वीकार नहीं करते पर यह एक बीमारी का रूप ले रही है जो वास्तव में चिंतित करने वाली है. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह एक मानसिक बीमारी है जिसका इलाज हो सकता है. पर समलैंगिक समुदाय इसे बीमारी नहीं मानते हुए अपनी निजी आजादी से जोड़ते हैं. उनका मानना है कि यह उनकी निजी जिंदगी का हिस्सा है और उन्हें उनकी पसंद से जीने का अधिकार मिलना चाहिए.
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिकता को अप्राकृतिक यौन संबंध के तहत अपराध की श्रेणी में रखा गया था. विश्व के अन्य कई देशों में भी यह अपराध की श्रेणी में ही माना जाता रहा है. पर कई देश ऐसे भी हैं जो इसमें संशोधन करते हुए इसे मान्यता दे चुके हैं. इसी को आधार मानते हुए कुछ साल पहले नाज फाउंडेशन जो एलजीबीटी यानि कि लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (LGBT or Lesbian, Gay, Bisexual, and Transgender) के अधिकारों के लिए काम करता है, ने समलैंगिकता (Homosexuality) को संवैधानिक मान्यता देने की मांग के साथ धरना-प्रदर्शनों की मुहिम छेड़ी. लंबे समय के विवाद के बाद कोर्ट ने इसे धारा 377 से अलग कर दिया जिसे नाज फाउंडेशन ने इस फाउंडेशन और समलैंगिकों (Homosexual) की बड़ी जीत के रूप में प्रचारित किया. सवाल यह उठता है कि क्या इसे यह मान्यता दी जानी चाहिए. समलैंगिकों की समानता के अधिकार की मांग को हम जायज कैसे मान सकते हैं अगर हम उसे स्वीकार ही नहीं कर सकते?
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मनोचिकित्सकों का मानना है कि समलैंगिकता (Homosexuality) एक मानसिक बीमारी है. कुछ हार्मोनल स्राव के अनियमित या ज्यादा-कम (Hormonal imbalance) होने के कारण शरीर में कुछ मानसिक कमियां उत्पन्न हो जाती हैं जो समलैंगिकता के लिए जिम्मेदार होती हैं. यह एक प्रकार से पागलपन की स्थिति है जो इंसान को समझ नहीं आती और वह अपनी इस सोच को सामान्य मानता है. समलैंगिकों (Homosexual) की यह अवस्था दवाइयों और व्यवहार चिकित्सा से दूर की जा सकती है.
समलैंगिकता (Homosexuality) एक मानसिक बीमारी है और इसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए न कि इसे सपोर्ट दिया जाना चाहिए. खासकर जो प्रसिद्ध चेहरे हैं वो युवाओं को भरमाते हैं. वे रोल मॉडल बन रहे हैं जो सही नहीं है. यह धीरे-धीरे समाज में इसकी स्वीकृति को बढ़ावा देना है जो एक प्रकार से सामाजिक मूल्यों के ह्रास को आमंत्रण देने के समान है. मीडिया और समाज दोनों को इस पर सामाजिक दृष्टिकोण से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. इसे एक बीमारी के रूप में प्रचारित करते हुए इस पर जागरुकता लाने की आवश्यकता है ताकि इस पर स्वीकृति की मांग की बजाय इसे एक बीमारी मानकर इसके इलाज के लिए लोग आएं और इससे खुद भी मुक्त होकर समाज में इस बीमारी को फैलने से बचाएं.
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