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घटते मानवीय मूल्यों के बीच बढ़ती सामाजिक हिंसा

महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा और क्रूरतापूर्ण रवैया गहन चिंता ही नहीं, बल्कि गहराई से चिंतन का विषय है. आखिर क्यूँ दिन-ब-दिन रेप और मर्डर जैसी घटनाएँ बढती जा रही हैं? 16 दिसंबर की घटना पर देशव्यापी हो-हल्ला के बावजूद 5 साल की बच्ची के साथ बलात्कार और अन्य क्रूरतम शारीरिक चोट देने की घटना और इस जैसी अन्य घटनायें इस सदी की त्रासदी कही जायें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.


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महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती हिंसा

महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती हिंसा की रोकथाम के लिये उठाये गए कदम कोई असर दिखाते नहीं नजर आ रहे हैं. हालात और बदतर ही होते जा रहे हैं. खासकर बलात्कार की बढ़ती घटनायें सोचनीय हैं. हम इसके खिलाफ कड़े-से-कड़ा कानून लाने की हिमायत कर रहे हैं. इसके दोषियों को फाँसी की सजा के प्रावधान के लिये कैंपेन कर रहे हैं पर क्या सचमुच ये कानून इस समस्या के संपूर्ण या आंशिक निदान में भी सहायक होगा? अभी तक के हालातों को देखते हुए तो ऐसा होता नहीं दीख पड़ा और निकट भविष्य में भी ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती.


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एक और बात जो यहां उल्लेख करना महत्वपूर्ण है वह यह कि 5 वर्ष पहले के आंकड़ा लें तो हम पाते हैं कि उस वक्त महिलाओं के खिलाफ हिंसा में ज्यादातर दहेज प्रताड़ना, दहेज की मांग और इसके लिये महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार, बहुओं को जिंदा जलाने की घटनाएं, लड़की जन्म देने के लिये महिलाओं पर अत्याचार, घरेलू हिंसा, पति और ससुराल पक्ष द्वारा पत्नी या बहू पर मारपीट की घटनाएं ज्यादा नजर आती हैं. किंतु पिछ्ले पांच वर्षों में महिलाओं, यहां तक कि किशोरियों और बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं प्रमुखता से नजर आने लगी हैं. रेप की ऐसी घटनाएं अखबारों के पहले पन्ने, तीसरे पन्ने पर आम रूप में एक खबर के रूप में आपको अक्सर देखने को मिल जाएंगी जिन पर मीडिया में बहस नहीं होती, समाचार चैनलों पर इसके कारणों पर चर्चा नहीं की जाती. पर इन सबके बीच एक खास बात जो हम महसूस कर सकते हैं वह यह कि अब दहेज की खबरें कम हो गयी हैं, सास द्वारा बहू को जलाने की खबर कभी-कभार ही ही आपको देखने को मिल पाती है. तो क्या ऐसी घटनायें कम हो गयी हैं? जवाब जानने की कोशिश करते हैं तो हमें जवाब ‘नहीं’ में मिलता है.

सर्च करते हैं तो पता चलता है कि आज भी ये घटनायें उन्हीं रूपों में, कई बार नए रूप में घट रही हैं. यहां यह गौर करना आवश्यक है कि महिलाओं की सुरक्षा में घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, दहेज की मांग और इसके लिये उसे प्रताड़ित करने, गर्भस्थ कन्या शिशु का गर्भपात आदि की रोकथाम के लिये कड़े कानून बनाए गये हैं, लेकिन अब तक ये हिंसा हो रही है. मीडिया भले ही अभी बलात्कार की घटनाओं को प्राथमिकता देकर इसके क्रूर रूपों को पेश करते हुए इसके विरुद्ध कड़े कानूनों की मांग करे लेकिन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के इतिहास को देखकर इससे सबक लेते हुए इसके वास्तविक कारणों और इन घटनाओं के रोकथाम के लिये ठोस उपायों को हमें पहचानना होगा.


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पारिवारिक माहौल का असर

जब भी शारीरिक शोषण और हिंसा की बात आती है तो सर्वप्रथम महिलायें जेहन में आती हैं और हम महिला हिंसा की ही बात उठाते हैं. इस नजरिए में अब बदलाव की सख्त जरूरत है. आज न केवल महिलाएं, अवयस्क किशोरियां, बच्चियां हिंसा की शिकार हो रही हैं, बल्कि इस ओर ध्यान केंद्रित करना अत्यंत आवश्यक है कि किशोर बालक भी शारीरिक शोषण और सेक्सुअल हिंसा के शिकार हैं. आंकड़े बताते हैं कई युवा या किशोर बालक अपने रिश्तेदारों द्वारा ही समलैंगिक शारीरिक शोषण और हिंसा के शिकार होते हैं. सामाजिक सोच और दायरों से बिल्कुल अलग इन घटनाओं कि खिलाफ न तो वे परिवार, न ही किसी और से कह पाते हैं जो आगे चलकर इनकी सोच और व्यवहार के लिये तो घातक सिद्ध होता ही है, अंततः समाज के लिये ही नुकसानदेह साबित होता है. न केवल ये, लेकिन कई बार देखा गया है कि किशोर बालक पारिवारिक महौल से बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं. अक्सर पुरुष प्रधान समाज की पहली परिभाषा और झलक उनके घर ही में देखने को मिलती है जब वे पिता द्वारा अपनी माँ को पिटते हुए देखते हैं और जब पिता द्वारा उन्हें अपनी बहन का रक्षक करार दिया जाता है. किशोरवय अपरिपक्व समझ अपनी माँ को पिता के हुक्म की तामील करता देख, उस पर भी उनसे पिटता देख इसे अपना अधिकार समझने लगता है और भविष्य में लड़कियों को देखने का उसका नजरिया इसी रूप में विकसित होता है जिसमें मानवीय मूल्यों की समझ और प्राथमिकता को हाशिये पर रख दिया जाता है. वास्तव में उनमें मानवीय मूल्य पनपे ही नहीं होते हैं और इस तरह वे बलात्कार, हत्या, मारपीट आदि करने में जरा भी नहीं हिचकते.


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कैसा बदलेगी स्थिति ?

हिंसा किसी भी प्रकार की हो, चाहे महिला पर हो या पुरुष पर, यह हमेशा हमारी घटती संवेदना का सूचक होती है. यह दर्शाता है कि हममें दर्द की समझ नहीं रह गयी है जो किसी देश या समाज के लिये ही नहीं, वरन् पूरे विश्व के लिये घातक है. सवाल है कि ऐसा क्यूं हो रहा है? तथ्यों पर जायें तो पारिवारिक माहौल इसके लिये बहुत हद तक जिम्मेदार माने जा सकते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जो बीज पड़ता है वही पेड़ उगता है. आज पुलिस पर भी सवाल उठ रहे हैं कि वह बलात्कार जैसी निहायत क्रूर घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज नहीं करती, ले-देकर पुलिस ही मामला रफा-दफा कर देने की कोशिश करती है. यह दिखाती है कि महिला हिंसा से जुड़ी घटनाओं को ये तरजीह नहीं देते हैं. अगर कयास लगायें तो इसका मुख्य कारण तो यही हो सकता है कि अपने घर में भी उनके लिये ये आम है और वे इसे कोई बड़ी बात नहीं मानते. पुलिस समाज की मुख्यधारा का एक हिस्सा है. उसके बीच ही अगर ऐसी सोच है तो आम सोच का हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं. अतः इन सबकी रोकथाम के लिये सबसे पहले हमें अपने सामाजिक ढांचे को दुरुस्त करना होगा.



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