एक मां रोती रही और रोते हुए कहती रही कि मुझे 12 साल हो गए अपनी बेटी को देखे. पता नहीं आज तक वो कहां है. कभी-कभी तो डर लगता है कि वेश्यावृत्ति या फिर किसी और गलत रास्ते पर ना चल रही हो. यह कहानी नहीं है सच्चाई है उन आदिवासियों की जिनको 12-14 साल हो गए हैं अपनी बेटियों को देखे या फिर कुछ आदिवासी परिवार ऐसे हैं जिनकी बेटियां लौट कर घर वापस आईं तो पर उनके परिवार ने ही उन्हें वापस जाने के लिए कह दिया.
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जब हम बाजार में कोई भी वस्तु लेने के लिए जाते हैं तो उसका मोल-भाव करते हैं पर सोचिए जरा कितना अजीब है कि आप बाजार में जाएं वो भी अपनी पंसद की लड़की खरीदने के लिए और वो भी कम दामों पर. पुरुष प्रधान समाज में सब कुछ हैरान कर देना वाला ही होता है. जरूरत पड़ने पर लड़कियां खरीदते हैं और जरूरत पड़ने पर लड़कियां बेच भी देते हैं. झारखंड की राजधानी रांची से ढाई सौ किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल सिमडेगा जिले में ऐसी बहुत सी लड़कियां है जो 12-13 सालों से अपने घर वापस नहीं आई हैं.
किसी भी माता-पिता के लिए क्या अपनी बेटी की कीमत हो सकती है. यदि नहीं तो फिर क्या गरीबी की मजबूरी इतनी बड़ी मजबूरी होती है कि माता-पिता 2 हजार से 3 हजार के बीच में अपनी बेटियां बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं. आदिवासी इलाकों में एक परिवार अपनी भोजन की सुविधा को पूरा करने के लिए अपनी बेटियों को 2 से 3 हजार रुपए के लिए बेच देते हैं या बहुत बार ऐसा होता है कि माता-पिता को इस बात का पता ही नहीं होता है कि उनकी बेटी बेची जा रही है. लड़कियों की दलाली करने वाले लोग आदिवासी इलाकों में बसे लोगों को यह विश्वास दिलाते हैं कि वो उनकी बेटी को काम के लिए ले जा रहे हैं और वहां ले जाकर काम दिलाएंगे पर लड़कियों के आदिवासी माता-पिता को यह नहीं पता होता है कि उनकी बेटियों को वेश्या के काम के लिए ले जाया जा रहा है. दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में खबर भी छपी थी कि महानगरों में आदिवासी लड़कियों को लाया जाता है और लड़कियों को प्लेसमेंट एजेंसी के हवाले कर दिया जाता है.
हैरान कर देने वाली बात यह है कि जब आदिवासी परिवार की लड़कियां मानसिक तिरस्कार को झेलने के बाद अपने घर वापस लौटती हैं तो उनका परिवार उन्हें अपनाने से मना कर देता है. क्या एक महिला होने का यही अंजाम है कि पहले तो अपनी सुविधाओं के लिए अपनी बेटियों को बेच दिया जाए पर यदि बेटियां अपने परिवार के पास वापस लौट आएं तो उनका परिवार उन्हें अपनाने से मना कर दे और समाज उन्हें नीची नजरों से देखे. सवाल यह है कि इसमें गलती किसकी है – उन आदिवासी परिवारों की जो अपने भोजन की सुविधा के लिए अपनी लड़कियों को रुपए कमाने के लिए महानगरों की तरफ भेज देते हैं या फिर उन लड़कियों की जिन्हें दलाली के बाजार में वस्तु की कीमत पर बेचा जाता है?
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