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क्या जींस के लिए बेची जा सकती है ममता?

क्या बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव ने इंसानी भावनाएं खत्म कर दी हैं, क्या उपभोक्ता मात्र एक इकाई बन कर रह गया है, जिसमें वह खुद को नियंत्रित कर पाने में असफल है? इंसानी सभ्यता पर यह एक बेहद सवाल है जिस पर बहस करने की जरूरत जब-तब आ ही जाती है. बाजार के इस चकाचौंध में जहां भावनाएं मूर्क्षित पड़ी हैं ऐसे में रिश्ते अपने अस्तित्व को बरकरार रखें यह आशा करना निरर्थक है.

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Motherhoodबाजार ने दिखाया पतन का रास्ता

ओडिशा के जाजपुर इलाके की रहने वाली राखी पात्रा ने अपने 17 महीने के बच्चे को मात्र पांच हज़ार रूपए में बेच दिया, पर उसने यह किसी अभाव के कारण नहीं किया. बाज़ारवाद की छवि ने उसे इस हद तक लुभाया कि  एक मोबाइल फोन और जींस खरीदने के लिए उसने अपने बच्चे को बेच दिया. पुलिस की पूछताछ में उसने पहले कहा कि वह गरीब है और उसका पति जेल में है. उसे छुड़ाने के लिए उसे बच्चा बेचना पड़ा. पर बाद में महिला ने मान लिया कि बच्चे को बेचकर जो पांच हजार रुपए मिले, उससे उसने जीन्स, टॉप, नया मोबाइल और उसका मेमरी कार्ड खरीदा. जब पुलिस ने कटक से बच्चे को बरामद कर उसे सौंपा, तो उसने लेने से भी इनकार कर दिया. यह वाकया इस बात का पूर्णतः समर्थन करता है कि किस प्रकार बाज़ारवाद ने हमें अपने अधीन कर लिया है.


खत्म हो रही है मां की ममता !!

मां ईश्वर का वो लौकिक रूप है जो हमें जीवन प्रदान करती है. भारतीय समाज या विश्व के किसी भी समाज में मां एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है. पर शायद आज इसके मायने भी बदल रहे हैं. प्रस्तुत घटना में रिश्तों में आती अवनति को देखा जा सकता है कि किस तरह रिश्तों के अस्तित्व में सेंध कर रहा है उपभोक्तावाद. जहां मां के मायने बदल रहे हैं वहां इसकी कल्पना करना ही व्यर्थ है कि इस समाज में बाज़ारवाद भावनाओं को जीवित रहने देगा. स्वार्थ एक अलग तरह की प्रकृति है जहां एक पक्ष के ऊपर ज्यादा ध्यान दिया जाता है पर मात्र प्रसाधनों के उपभोग के लिए संतान से स्वार्थ करना एक असामाजिक कृत्य के अलावा और कुछ नहीं है. भावनाओं की पवित्रता को नष्ट करने के साथ-साथ अपनों में दूरत्व पैदा करना इस उपभोक्तावाद की प्रमुख साजिश लगती है और इसमें यह काफी हद तक सफलता भी पा रहा है या हम इसे यह करने की आज़ादी दे रहे हैं.

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सोशल इश्यू आधुनिक महिलाएं: भोगी स्वभाव

वर्तमान में फ़ैल रहे या मानवता के साथ परस्पर चलते उपभोग योग्य प्रसाधनों का अविष्कार होना  कहीं न कहीं इस बात का सूचक है कि लोग भोगी होते जा रहे हैं. खास कर महिलाओं में देखा जा रहा है कि वो किस प्रकार इस बाज़ारवाद के भंवर में फंसती चली जा रही हैं. जहां एक ओर यह कहा जाता था कि महिलाएं, पुरुषों कि अपेक्षा ज्यादा भावनात्मक होती हैं वहीं वे इस कथन को मिथ्या साबित करने पर तुली हैं. जहां एक तरफ वो आधुनिकता के बहाव में बही जा रही हैं वहीं दूसरी तरफ उन्होंने अपने प्रमुख स्वभाव को त्याग दिया है जो एक नारी का अभिन्न गुण होता है. इस पूरे चक्र में बाजारवाद एक उत्प्रेरक का काम करता है जिससे महिलाएं अपने प्रधान गुण की रक्षा कर पाने में असमर्थ हैं और यह असमर्थता उनकी अपनी संस्कृति को विलुप्त करती जा रही है. हमारे भारतीय समाज में आंचल का प्रमुख स्थान रहा है. यह आंचल उनके शिशु को वो ममत्व प्रदान करती है जिसे यह बाज़ार नहीं दे सकता. पर आज के दौर में आंचल बचा ही नहीं है पाश्चात्य संस्कृति ने आंचल को लुप्त कर दिया है.


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कितना असर है बाजारीकरण का ?

बाज़ारवाद सही मायनों में जिस हद तक हमें उन्नत नहीं कर पाया है उससे कहीं ज्यादा उसने हमें वैचारिक स्तर पर अवनत कर दिया है. इसने सबसे पहले हमसे हमारी स्वतंत्रता छीन ली और हमें अपने नियंत्रण में ले लिया. आज बाज़ार हमारे मुताबिक नहीं चलता बल्कि हम उसकी जरूरतों के हिसाब से चलते हैं. हमारी दैनिक जरूरतों की बजाय यहां इतनी अन्य निरर्थक वस्तुएं उपलब्ध हैं जिनकी हमें जरूरत ही नहीं है. पर बाजार इस तरह से अपने को प्रचारित करता है जिससे हम आकर्षित हुए बिना नहीं रह पाते. इसके लिए हम कष्ट भी सहते हैं और नीचता की किसी भी सीमा को पार कर सकते हैं. ऋण लेकर शौक को पूरा करने की नयी विधा का ईजाद किया बाज़ारवाद ने जिससे हमारी आधी जिन्दगी इसके व्याज चुकाने में ही बीत जाती है.


कैसे थमेगा बाजारवाद ?

आज बाजारवाद ने अपने पैर इतने फैला लिए हैं कि इस व्यवस्था को दुरुस्त करने में काफी मशक्कत करनी होगी. सबसे पहले अपने भीतर पनपती असीम लालसाओं पर विराम लगाना होगा और जहां तक हो सके इसके विरुद्ध कड़े रुख अपनाने होंगे. इस पर नियंत्रण तभी हो सकेगा जब हम खुद की जरूरतों के आधार पर यह तय कर पाएं की किस वस्तु के बिना हमारा जीवन संचालित नहीं होगा यानि अत्यावश्यक जीवनोपयोगी वस्तुएं क्या है. हमें बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव से खुद को पृथक करना होगा और जहां तक संभव हो इसका बहिष्कार करना होगा.

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