परंपरागत अवधारणा के अनुसार भारतीय समाज में महिलाओं को कभी पुरुषों के समान दर्जा ना देकर उनके साथ किसी अधीनस्थ प्राणी के जैसा व्यवहार किया जाता है. प्राचीन भारतीय समाज में भले ही महिलाएं स्वतंत्र और सम्मानजनक जीवन व्यतीत करती थीं, ऐसा जीवन जिसमें उन्हें पुरुषों के समान जीवन यापन करने और साथी चुनने का अधिकार था लेकिन महिलाएं अपनी इस भूमिका को ज्यादा समय तक कायम नहीं रख पाईं और उनके हालात जटिलता की ओर बढ़ते गए और एक समय बाद वह एक उपभोग की वस्तु समझी जाने लगीं जिसका काम पुरुषों की इच्छाओं की पूर्ति करना रह गया था.
समय बदला और महिला उत्थान की बयार में तेजी आने लगी, उन्हें कानून का संरक्षण देकर पुरुषों के समान लाने के लिए आजीविका कमाने का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार आदि प्रमुख क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने में तेजी से काम होने लगा. आज आलम यह है कि जो भी कानून बनते हैं या मसले कोर्ट में जाते हैं अधिकांश में महिला को ही पीड़ित करार देकर उसके हक में निर्णय लिया जाता है. उदाहरण के तौर पर दहेज उत्पीड़न का मामला हो या फिर कोई अन्य घरेलू हिंसा आदि मसलों में महिलाओं के प्रति पूर्ण सांत्वना बरती जाती है.
लेकिन यहां यह बात विचारणीय है कि क्या हर बार महिलाएं दमित और शोषित ही होती हैं या फिर वह कानून का प्रयोग अपने हित साधने के लिए भी करती हैं?
हाल ही में बॉम्बे हाइकोर्ट के एक निर्णय पर नजर डालें तो यह बात स्वत: ही प्रमाणित हो जाती है कि महिलाओं के प्रति सांत्वनापूर्ण रवैया कभी-कभार पुरुषों के साथ अन्याय का कारण भी बन सकता है.
इस मामले में अपने दांपत्य जीवन से नाखुश एक महिला ने विवाह के कुछ वर्षों बाद ही अपनी छोटी सी बेटी के साथ घर छोड़ दिया और अपने पारिवारिक अदालत में पति द्वारा दिए जाने वाले गुजारे भत्ते संबंधी याचिका दायर कर दी. उसके पति ने भी अदालत का आदेश मानते हुए अपने पत्नी को पैसे भेजना शुरू कर दिया और एक दिन चुपके से तलाक की अर्जी डाल दी. एकपक्षीय मामला बताते हुए अदालत ने उसे तलाक दे दिया. इस निर्णय के छ: वर्ष बाद पत्नी ने तलाक के विरुद्ध याचिका डाली लेकिन देरी के आधार पर न्यायालय ने इस याचिका को रद्द कर दिया. लेकिन गुजारा-भत्ता देने पर सहमति जताई.
इस बीच उस महिला ने किसी अन्य व्यक्ति के साथ रहना शुरू कर दिया और कुछ समय बाद उस व्यक्ति की भी मृत्यु हो गई. इसीलिए महिला के पूर्व पति ने अदालत में यह याचिका दायर की कि जब उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ रह रही थी तो ऐसे में उसके द्वारा दिए जाने वाला गुजारा-भत्ता भी समाप्त कर दिया जाए.
परंतु अदालत ने यह कहते हुए उसकी अपील खारिज कर दी कि वह व्यक्ति यह साबित नहीं कर सका कि उसकी पत्नी का दोबारा विवाह हुआ था इसीलिए गुजारा भत्ता तो उसे देना ही पड़ेगा.
पारिवारिक अदालत के इस फैसले को पीड़ित पुरुष द्वारा हाइकोर्ट में भी चुनौती दी गई लेकिन यहां भी उसे निराशा ही हाथ लगी. अदालत के निर्णय के अनुसार उसकी पत्नी जिस पुरुष के साथ रह रही थी उसकी मृत्यु हो गई है और अगर महिला निर्धन है तो वह अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता लेने का पूरा अधिकार रखती है.
उपरोक्त मामले और न्यायालय के निर्णय के बाद भले ही महिला को अपनी बेटी के पालन और अपने जीवन यापन के लिए गुजारा भत्ता मिलने लगा लेकिन जो उस महिला ने किया क्या वह पति के साथ अन्याय नहीं था?
दांपत्य जीवन को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ रहना किसी भी स्थिति में सही करार नहीं दिया जा सकता. शायद किसी भी दृष्टिकोण में इस केस में महिला को हम पीड़िता की नजर से नहीं देख सकते. खैर यह पहला ऐसा मामला नहीं है जिसमें पुरुष और उसके परिवार के साथ हुए अन्याय को नजरअंदाज कर महिला के हित में निर्णय सुना दिया जाता है. दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा आदि कई ऐसे मसले हैं जिनमें बिना जांच-पड़ताल के ही ससुराल पक्ष और पति को दोषी ठहरा दिया जाता है.
हम महिलाओं को पुरुषों के समान लाने की बात करते हैं लेकिन जब व्यवहारिक रूप देने की बात होती है तो कभी पुरुष तो कभी महिला के प्रति पक्षपाती हो जाते हैं. जबकि प्रगतिशील और आधुनिक होते भारत के लिए यह केवल नकारातमक कदम ही सिद्ध होगा.
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