प्रकृति ने महिला और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक के रूप में पेश किया है. इसीलिए विपरीत लिंगों के लोगों का एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना एक सामान्य घटनाक्रम है. लेकिन आधुनिक होते समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्हें हम समलैंगिकों या उभयलैंगिकों की श्रेणी में रखते हैं. जिन लोगों को समाज समलैंगिक कहता है वह विपरीत लिंग की अपेक्षा समान लिंग के लोगों के प्रति शारीरिक आकर्षण रखते हैं वहीं उभयलिंगीय समान और विपरीत दोनों के ही प्रति समान रूप से आकर्षित होते हैं.
हालांकि दोनों ही मामलों में व्यक्ति अपनी मूल पहचान से दूर हो जाता है और समाज भी ऐसे लोगों को सम्मानजनक नजरों से नहीं देखता. ऐसे में उनका मानसिक रूप से आहत होना स्वाभाविक है, लेकिन ज़ॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय द्वारा संपन्न एक अध्ययन में यह स्थापित किया गया है कि समलैंगिक या उभयलिंगीय श्रेणी में शामिल लोगों में महिलाएं अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित होती हैं. विशेषकर वे महिलाएं जो उभयलैंगिक होती हैं उनके अवसादग्रस्त रहने की संभावना कई गुणा ज्यादा बढ़ जाती है. इतना ही नहीं ऐसी महिलाएं बहुत जल्दी नशे की आदी बन जाती हैं.
मुख्य शोधकर्ता लिजा लिंडले का कहना है कि समाज में उभयलैंगिक महिलाएं बहुत कम ही देखने को मिलती हैं. क्योंकि समाज उन्हें मूर्ख और कंफ्यूज समझता है. उन्हें महिला और पुरुष में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाता है जो महिलाओं के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है.
हमारे समाज में उभयलैंगिक महिलाओं के विषय में कई तरह की गलतफहमियां विद्यमान हैं. जिसकी वजह से वह कभी भी खुद को समाज के सामने प्रदर्शित नहीं करना चाहतीं.
शोधकर्ताओं का कहना है कि समलैंगिक और उभयलैंगिक युवा बहुत जल्द नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं, लेकिन समय के साथ-साथ पुरुष तो खुद को संभाल लेते हैं लेकिन महिलाएं अंदर से कमजोर पड़ती जाती हैं. इसक सबसे बड़ा कारण यह है कि पुरुष तो अपने लिए एक समुदाय ढूंढ़ लेते हैं, जहां सभी पुरुष उनके ही समान हों परंतु महिलाएं समाज की बंदिशों और मर्यादाओं के कारण कभी खुलकर अपनी इच्छाएं जाहिर नहीं कर पातीं. यही वजह है कि वह खुद को अकेला पाती हैं और यही अकेलापन उन्हें धीरे-धीरे अवसाद की चपेट में ले जाता है.
इस विदेशी अध्ययन और समलैंगिकों से जुड़े मसले को भारतीय परिदृश्य के अनुसार देखें तो भारत में भी यौन वरीयता को मनुष्य का व्यक्तिगत मामला समझा जाता है लेकिन हम चाहे कितने ही आधुनिक क्यों ना हो जाएं, हमारा समाज जो अपनी परंपराओं और मान्यताओं की मजबूत नींव पर खड़ा है वहां कभी भी ऐसे संबंधों को स्वीकार्यता प्रदान नहीं की जा सकती. भारत के संदर्भ में समलैंगिकता जैसा शब्द कोई नई अवधारणा नहीं हैं बल्कि बरसों से यह एक ऐसा प्रश्न बना हुआ हैं जो मनुष्य और उसके मानसिक विकार को प्रदर्शित करता हैं. सन 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया है. अदालत के इस आदेश से उन लोगों ने तो राहत की सांस ली ही होगी जो इसमें रुचि रखते हैं या ऐसे संबंधों को बुरा नहीं मानकर उनका समर्थन करते हैं.
समलैंगिकता का समर्थन करने वाले लोगों का तर्क है कि व्यक्ति का आकर्षण किस ओर होगा यह उसकी मां के गर्भ में ही निर्धारित हो जाता हैं और अगर वह समलिंगी संबंधों की ओर आकृष्ट होते हैं तो यह पूर्ण रूप से स्वाभाविक व्यवहार माना जाना चाहिए. लेकिन यहां इस बात की ओर ध्यान देना जरूरी है कि जब प्रकृति ने केवल महिला और पुरुष में ही परस्पर आकर्षण विकसित होने के सिद्धांत को मान्यता दी है तो ऐसे में समान लिंग या समान और विपरीत दोनों के प्रति आकर्षित होने के सिद्धांत को मान्यता देना कहां तक स्वाभाविक माना जा सकता है?
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