बदलती जीवनशैली और पारिवारिक हालातों के कारण तनाव में रहना किसी के लिए नया नहीं रह गया है. तनाव के कारण मनुष्य के स्वास्थ्य पर तो असर पड़ता ही है साथ ही यह उसके पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. लेकिन एक नए अध्ययन के अनुसार जीवन में विकसित यह तनाव ना सिर्फ आपको मानसिक रूप से परेशान करता है बल्कि आपकी होने वाली संतान के भ्रूण का भी निर्धारण करता है.
लंदन में हुए इस अध्ययन के अनुसार वे महिलाएं जो गर्भावस्था में तनावग्रस्त रहती हैं उनके बेटी को जन्म देने की संभावनाएं अपेक्षाकृत ज्यादा होती हैं.
लंदन में हुए एक शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि वे महिलाएं जो गर्भावस्था के समय घरेलू या कार्यालय में चल रहे तनाव का सामना करती हैं वह बेटे को जन्म देने जैसी परिस्थितियों में नहीं होतीं.
डेली मेल में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसंधानकर्ताओं नें 338 महिलाओं को अपने शोध का केन्द्र बनाया, जिनसे व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ सवाल किए गए. महिलाओं से उनके वैवाहिक संबंध के विषय में पूछा गया. इसके अलावा गर्भावस्था के दौरान उन्हें किस प्रकार की घरेलू समस्याओं या मानसिक दबाव का सामना करना पड़ा इसका भी आंकलन किया गया.
इस परीक्षण के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि गर्भावस्था के दौरान अगर महिला तनाव में रहती हैं तो उनके कार्टिसोल समेत तनाव से जुड़े सभी हार्मोनों का स्तर बढ़ जाता है, और तनाव के हार्मोनों का स्तर बढ़ने के कारण वह बेटी को जन्म देती हैं.
विदेशी संस्कृति, मान्यताएं और पारिवारिक जीवन भारतीय परिवेश की अपेक्षा कम जटिल हैं. विदेशों में जहां संतान से जुड़े मसले पूरी तरह विवाहित दंपत्ति पर निर्भर करते हैं वहीं भारत में संतान का जन्म परिवार की खुशियों और प्राथमिकताओं पर आधारित होता है. विवाह के कुछ समय बाद ही महिला को संतानोत्पत्ति के लिए दबाव डाला जाता है लेकिन एक शर्त पर कि वह बेटी को जन्म नहीं दे सकती.
हमारे समाज में बेटी को बोझ समझने और बेटों के लिए ललचाने वाले परिवारों की कोई कमीं नहीं है. आगे चलकर लड़की की वजह से कहीं अपमानित ना होना पड़े जैसी अनेक कुंठित मानसिकताओं से भरे-पूरे लोग बेटी के जन्म लेने को शोक में तब्दील कर देते हैं. उनका मंतव्य तो किसी ना किसी तरह बेटी से छुटकारा पाना होता है. यही कारण है कि आधुनिकता की राह पर चलते हुए भारत में आज भी परंपरा के नाम पर कन्या भ्रूण हत्या और कन्या वध जैसे कुकृत्य धड़ल्ले से हो रहे हैं.
अपनी संतान की चाह सभी को होती हैं, विशेषकर स्त्रियां जिन्हें हम सृष्टि के अत्याधिक भावुक प्राणी की संज्ञा देते हैं, उसके लिए अपनी संतान होने का अहसास सबसे अनमोल होता है. शायद ही किसी महिला को संतान के रूप में बेटी का जन्म लेना घृणित लगता हो. लेकिन जब उसे यह ज्ञात होता है कि अगर उसने एक बेटी को जन्म दिया तो उसे तो ससुराल द्वारा प्रताड़ित किया ही जाएगा साथ ही बेटी पर जो अत्याचार हो सकते हैं उसकी मात्र कल्पना भी महिला के लिए दुखदायी बन जाती है. परिणामस्वरूप गर्भवती महिलाएं तनावग्रस्त रहने लगती हैं. उन्हें यही डर सताता रहता है कि अगर बेटी हुई तो क्या होगा? विनाशकारी परिणामों से बचने के लिए वह हर पल यही प्रार्थना करती रहती हैं कि बेटी ना हो.
शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद ऐसा माना जा रहा था कि शायद परिवारों में पनप रही कन्या विरोधी मानसिकता पर लगाम लगाई जा सकेगी. लेकिन मात्र ऐसा सोच लेना ही काफी नहीं था. आज भी परिवारों में बेटियों को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है. अगर किसी को उस नवजात बच्ची पर तरस आ जाए तो उसे जीने का अवसर तो दिया जाता है लेकिन उसका जीवन ही उसके लिए सजा बन जाती है.
विदेशों में तनाव की वजह शायद दंपत्ति के बीच होने वाले छोटे-छोटे मनमुटाव या ऑफिस की परेशानी हो सकती है. लेकिन भारतीय परिवेश में महिलाओं को बेटे और बेटी में होने वाला अंतर ही सबसे ज्यादा तनावग्रस्त करता है.
महिला और पुरुष के जींस और हार्मोन मिलकर एक भ्रूण का निर्माण करते हैं. लेकिन महिला ही अपने शरीर में भ्रूण को स्थान देती है इसीलिए बेटा या बेटी होने की पूरी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर डाल दी जाती है. कन्या होने पर उसे ही दोषी ठहराया जाता है.
कन्या को बोझ समझने जैसी मानसिकता का आज कोई स्थान नहीं रह गया है. आज जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी सफलता दर्ज ना की हो. शहरी क्षेत्रों में तो फिर भी बेटी के जन्म को स्वीकार किया जाने लगा है. लेकिन ग्रामीण इलाकों के हालातों में कोई सुधार नहीं देखा गया है. लोग् अपनी मजबूरी का हवाला देकर या कभी अपनी गरीबी के कारण अपनी बेटी से मुंह फेरते ही रहते हैं. उन्हें यह समझना चाहिए कि अगर सभी बेटी को मार डालेंगे या उसे पैदा नहीं होने देंगे तो जिस वंश को आगे बढ़ाने के वह सपने देख रहे हैं, वह भी एक सपना बनकर ही रह जाएगा.
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