आधुनिकता की दौड़ में अग्रसर हमारा भारतीय समाज खुद को चाहे कितना ही मॉडर्न या ब्रॉड माइंडेड क्यों ना समझ ले लेकिन वास्तविकता यह है कि आज भी हम उसी संकीर्ण मानसिकता के ही शिकार हैं जिसके अंतर्गत व्यक्ति के गुणों की पहचान उसके रंग के आधार पर होती है. पुरुष प्रधान समाज में रहने के कारण महिलाओं को ऐसे हालातों का सामना अपेक्षाकृत अधिक करना पड़ता है. विवाह के समय यह समस्या और अधिक विकराल रूप ले लेती है जब युवती के गुणों को दरकिनार कर परिवार के सभी सदस्य उसके रंग-रूप पर ध्यान देते हैं. सांवले रंग के आगे उस युवती की सभी खूबियां बेमानी पड़ जाती हैं. लेकिन अगर लड़की देखने में सुंदर और गोरी है तो उसकी खामियों को ज्यादा तरजीह नहीं दिया जाता. नि:संदेह ऐसी मानसिकता और सामाजिक व्यवस्था उस युवती को मानसिक रूप से आहत कर सकती है. यही वजह है कि हमारे समाज में सांवला रंग एक अभिशाप से कम नहीं समझा जाता.
हर युवती की चाहत होती है कि उसका अपना एक खुशहाल परिवार हो, जिसमें उसे सम्मान के साथ स्वीकार किया जाए. लेकिन हमारी ऐसी मानसिकता और निरर्थक विचाराधारा युवतियों की इस महत्वाकांक्षा और उनके भविष्य पर प्रश्न चिंह लगा देती है. ऐसी परिस्थितियों में यह प्रश्न उठता है कि क्या सांवली लड़की को सपने देखने का कोई अधिकार नहीं हैं? या फिर उनकी चाहत का कोई महत्व नही है? युवतियों की इसी मनोदशा को भी बाजारवाद के जरिए भुनाने का पूरा प्रयास किया जाता है. युवतियों में गोरा रंग पाने की होड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में स्किन प्रॉडक्ट्स का व्यापार लगभग 1800 करोड़ रूपए है, जिसमें से फेयरनेस क्रीम का हिस्सा 40 प्रतिशत है. टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन भी यही दर्शाते हैं कि केवल गोरा रंग ही किस्मत को चमका सकता है. कॅरियर हो या फिर वैवाहिक मसला सांवली लड़की के खूबसूरत नैन-नक्श भी उसके रंग की वजह से प्रभाव नहीं छोड़ पाते और वह सफलता की दौड़ में गोरी लड़की से पिछड़ जाती है.
हम इस बात को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि यही विज्ञापन परिवारों को भ्रमित करने का कार्य भी बड़ी सहजता से कर रहे हैं. बाजारवाद का एकमात्र ध्येय अधिकाधिक धन एकत्र करना है. इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कंपनियां ऐसे-ऐसे प्रॉडक्ट्स का निर्माण कर रही हैं जो गोरी त्वचा का दावा तो करती ही हैं, लेकिन इसके साथ महिलाओं को भी एक वस्तु की भांति प्रदर्शित करती हैं जिसकी खूबियां या विशेषताएं कोई मायने नहीं रखती बस उसका रंग ही उसकी नियति निर्धारित कर सकती है. इन विज्ञापनों का ही दुष्प्रभाव है कि विवाह के लिए योग्य कन्या के विपरीत गोरी लडकी को ही प्राथमिकता दी जाने लगी है. फेयरनेस क्रीम्स के ऐसे विज्ञापनों का असर अभिभावकों और परिवार के लगभग सभी लोगों पर पड़ता है. जिन परिवारों में दो बेटियां होती हैं, वहां भी यह भेद-भाव साफ देखा जा सकता है. साफ रंग वाली बेटी की अपेक्षा सांवले रंग की बेटी के विवाह को लेकर माता-पिता अधिक चिंताग्रस्त रहते हैं. उस पर फेयरनेस प्रॉडक्ट को प्रयोग करने का दबाव डाला जाता है और कभी-कभी उस पर ताने भी मारे जाते हैं. लोगों का मानना है कि गोरा होना मतलब सुंदर होना है. परिवार या घर के बाहर जब युवतियां देखती हैं कि गोरे रंग को अघिक महत्व दिया जा रहा है, तो उनकी मानसिकता भी कुछ इसी प्रकार की होती है. ऐसे में अगर उसका रंग सांवला है तो यह मनोदशा पर विपरीत प्रभाव डालता है. बड़े होने पर अगर विवाह में समस्या आती है तो संभवत: उसमें हीन भावना घर कर जाएगी.
युवक के रंग-रूप की ओर कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता लेकिन जब युवती पसंद करने की बारी आती है तब पुरुष भी ऐसी ही महिला को अपनी जीवन संगिनी बनाना पसंद करते हैं जो सुंदर और गोरी हो. अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता तो संभवत: यह उनके वैवाहिक जीवन में तनाव पैदा करता है. ऐसे कई मामले हमारे सामने हैं जिसमें पति अपनी पत्नी के साथ सिर्फ इसलिए नहीं रहना चाहता क्योंकि पत्नी सांवली है और देखने में आकर्षक नहीं है. अपने वैवाहिक जीवन से त्रस्त पुरुष सुंदरता की तलाश में विवाह के बाहर का रुख करता है. यहीं से युवती के जीवन में परेशानियों का दौर प्रारंभ हो जाता है.
हमारे समाज की विडंबना ही यही है कि यहां महिलाओं के हितों की ओर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा जाता. परिवार के भीतर ही जब युवती उपेक्षा का शिकार होती है तो समाज से किसी भी प्रकार की उम्मीद रखना बेमानी है. केवल रंग और बाहरी व्यक्तित्व के आधार पर किसी को कैसे परखा जा सकता है? विशेषकर वैवाहिक संबंध जो भारतीय समाज में सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं, जो महिला और पुरुष को आजीवन एक-दूसरे के साथ बांधे रखते हैं. उनमें सुंदरता और रंग को महत्व देना कितना जायज है? हमें यह सोचना चाहिए कि बाहरी सुंदरता एक सीमित अवधि के लिए होती है. सबसे महत्वपूर्ण होता है व्यक्ति का स्वभाव, उसका आचरण. यह समझना चाहिए कि वैवाहिक जीवन की नियति आपसी समझ और मेल-जोल पर आधारित होती है और उन्हें किसी दिखावे की जरूरत नहीं होती.
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