भारतीय समाज में वैवाहिक संबंध अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं. संबंधित महिला और पुरुष के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ा होने के बावजूद, विवाह दोनों पक्षों के परिवारों को भी पारस्परिक सुख-दुख का साझेदार बना देता है. हमारे परंपरा प्रधान समाज में विवाह एक ऐसी धार्मिक और सामाजिक संस्था है जो किसी भी महिला और पुरुष को एक साथ जीवन व्यतीत करने का अधिकार देने के साथ-साथ दोनों को कुछ महत्वपूर्ण कर्तव्य भी प्रदान करती है. उल्लेखनीय है कि यह कर्तव्य और अधिकार ना सिर्फ महिला और पुरुष पर लागू होते हैं, बल्कि वे अपने परिवार के प्रति भी समान रूप से उत्तरदायी हो जाते हैं. इतना ही नहीं पति-पत्नी को दांपत्य जीवन के दो पहियों के समान बराबर महत्व और स्थान दिया जाता है.
भारतीय परिदृश्य में वैवाहिक संबंध में बंधने के बाद महिला और पुरुष एक दूसरे से पूरी तरह जुड़ जाते हैं. उनका जीवन व्यक्तिगत ना रहकर परस्पर सहयोग की भावना पर आधारित हो जाता है. पति-पत्नी बन जाने के बाद उनके भीतर परस्पर आकर्षण तो विकसित होता ही है, लेकिन एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण इससे भी ज्यादा अहमियत रखता है.
हिंदू मान्यताओं के अनुसार विवाह एक बेहद धार्मिक और पवित्र संबंध माना जाता है. जिसका अनुसरण पारिवारिक रीति-रिवाजों के द्वारा किया जाता है. मुख्य तौर पर वैवाहिक संबंध वंश को बढ़ाने के लिए जोड़े जाते हैं लेकिन इनका निर्वाह करना महिला और पुरुष के लिए उनका धर्म बन जाता है. वे दोनों परिवार के बड़ों के आशीर्वाद के साथ अपने नए जीवन की शुरूआत करते हैं. वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी अपने परिवार और एक दूसरे की खुशियों का ध्यान रखते हैं और पारिवारिक संबंध को पूरी तन्मयता के साथ निभाते हैं.
वैवाहिक संबंध दो परिवारों के आपसी मसले होते हैं. इनमें राज्य का कोई दखल नहीं होता. परिवारों के भीतर विवाह संस्कार सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण माने जाते हैं. मनुष्य जीवन के लगभग सभी पड़ाव विवाह पर ही निर्भर करते हैं.
भारतीय परिदृश्य में वैवाहिक संबंधों की अहमियत और महत्ता इसी तथ्य से आंकी जा सकती है कि विवाह संबंध में बंधने के बाद अधिकारों के स्थान पर कर्तव्य भावना अधिक विद्यमान रहती है. हमारी परंपराओं के अनुसार विवाह के पश्चात युवती को अपने पिता के घर को छोड़कर पति के घर जाना होता है. विवाह के बाद पति का घर और उसके परिवार वाले ही पत्नी की जिम्मेदारी बन जाते हैं. इसीलिए माता-पिता बचपन से ही अपनी बेटी के भीतर सहनशीलता और पारस्परिक सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए उसे शिक्षा देने लगते हैं, ताकि उसे ससुराल में सामंजस्य बैठा पाने में मुश्किल ना हो. ऐसी सीख लिए जब युवती ससुराल जाती है तो वह अपने पति और ससुराल के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ती. कन्यादान के रूप में पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथ में देते हुए यह आशा रखता है कि उसका पति भी उस युवती को एक सम्मानपूर्वक और सहज वातावरण उपलब्ध करवाएगा, जैसा उसे अपने पिता के घर में प्राप्त था. इसीलिए पति अपनी पत्नी को एक खुशहाल वातावरण देने के लिए हर संभव प्रयत्न करता है और घर के भीतर या बाहर उसके सम्मान को बरकरार रखने के लिए सहयोग देता है. जैसे-जैसे परिवार बढ़ने लगता है, पति-पत्नी के कर्तव्यों में भी विस्तार होने लगता है.
वर्तमान हालातों में पति और पत्नी दोनों ही आर्थिक जिम्मेदारियों के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी मिल परस्पर सहयोग की भावना के साथ पूरा करते हैं. विदेशों में जहां वैवाहिक संबंध केवल एक समझौते के तहत निभाए जाते हैं, जिसका निर्वाह इच्छानुसार एक सीमित अवधि या फिर आजीवन किया सकता है. उनके लिए संबंध को तोड़ना और इससे बाहर निकलना बहुत आसान काम होता है. लेकिन भारत में वैवाहिक संबंध मंत्रोच्चारण और शास्त्रों को आधार रखते हुए धार्मिक कर्म-कांडों के साथ संपन्न किए जाते हैं. वैवाहिक संबंधों को पारिवारिक और सामाजिक रजामंदी प्राप्त होना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना संबंधित युवक और युवती की आपसी सहमति.
वैवाहिक संबंधों की नियति निश्चित तौर पर परिवार के सभी सदस्यों के पारस्परिक व्यवहार और स्वभाव पर निर्भर करती है. वैवाहिक संबंध में आने वाले उतार-चढ़ाव संबंधित महिला और पुरुष के साथ उनके पूरे परिवार को प्रभावित करते हैं. इसीलिए प्रेम-पूर्वक और पूरी आत्मीयता के साथ इनका निर्वाह किया जाना ही एक मात्र ऐसा विकल्प है जिससे अनुसार वैवाहिक संबंध की गरिमा और मान्यता को बरकरार रखा जा सकता है.
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