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प्रेम विवाह में तलाक की दर ज्यादा क्यों?

love and divorceवर्तमान परिदृश्य के मद्देनजर इस बात को कतई नकारा नहीं जा सकता कि हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता और प्राथमिकताएं बहुत हद तक अपने तक सीमित हो गई हैं. यही कारण है कि अब विवाह, जिसे कभी पारिवारिक निर्णय समझा जाता था, को वह केवल स्वयं तक ही सीमित रख, सबसे पहले अपनी भावनाओं और अपेक्षाओं को ही महत्व देने लगे है. पहले, परिवार के लोग परंपरगत रीति-रिवाजों का अनुसरण करते हुए अपनी इच्छा और समझ के अनुसार विवाह निर्धारित कर दिया करते थे. उनके इस निर्धारण में विवाह योग्य युवक-युवती की पसंद-नापसंद सीमित महत्व रखती थी. क्योंकि अभिभावकों और परिवार के बड़ों का यह मानना था कि विवाह के पश्चात संबंधित परिवार आपस में जुड़ जाते हैं, इसीलिए कोई भी वैवाहिक संबंध तभी सफल हो सकता है जब दोनों परिवारों में कुछ मूलभूत समानताएं हो.


लेकिन अब हमारे युवा इन परंपराओं को दरकिनार कर प्रेम-विवाह के प्रति आकृष्ट होने लगे हैं. वह विवाह को एक ऐसा पड़ाव मानते हैं जिसके बाद उनका आगामी जीवन पूरी तरह परिवर्तित हो सकता है. इसीलिए उन्हें एक ऐसे साथी की तलाश रहती है जिसके साथ वह सहज और अनौपचारिक भाव के साथ अपना जीवन यापन कर सकें. वह यह अच्छी तरह जानते हैं कि परंपरागत रीति-रिवाजों के अंतर्गत युवक-युवती को विवाह से पूर्व एक-दूसरे से मिलने का पर्याप्त मौका नहीं दिया जाता. परिणामस्वरूप वह एक-दूसरे के स्वभाव को जान और समझ नहीं पाते. ऐसे में उनके सामने प्रेम-विवाह ही एकमात्र विकल्प रह जाता है.


परिवार जहां अपने अनुभव की दुहाई देते हुए परंपरागत विवाह शैली को ही बेहतर मानता है, वहीं युवा अपनी पसंद और अपेक्षाओं को विवाह के लिए बेहद जरूरी मानते हैं. नि:संदेह दोनों विचारधाराओं में मतभेद उत्पन्न होना लाजमी है. लेकिन ऐसे हालातों में दोनों को ही गलत नहीं कहा जा सकता. हालांकि विवाह दो परिवारों को भी आपस में जोड़ देता है, लेकिन मुख्य रूप से वह केवल युवक-युवती के जीवन को ही प्रभावित करता है. परंपरागत शैली से किया गया विवाह हो या प्रेम-विवाह, जरा सी भी भूल और असावधानी संबंधों को बिखेर सकती है.


हमारी युवा पीढ़ी, जो प्रेम-विवाह को परिवार की पसंद से ज्यादा तरजीह देने लगी है, इस बात से पूरी तरह नावाकिफ है कि प्रेम-विवाह हो या परंपररागत, किसी भी संबंध की सफलता उस संबंध को वहन करने वाले लोगों की आपसी समझ और सहन शक्ति पर निर्भर करती है. वह इस बात को भूल जाते हैं कि परंपरागत विवाह, परिवार वालों का आपसी निर्णय होता है, इसीलिए अगर विवाह के पश्चात किसी भी तरह की परेशानी आती है तो परिवार वालों का समर्थन आपके साथ रहता है. वह हर परिस्थितियों में आपको सहयोग करते हैं. उनका यही सहयोग और समर्थन वैवाहिक संबंध को टूटने से बचा लेता है. लेकिन प्रेम-विवाह में परिवार वालों का निर्णय कोई खास महत्व नहीं रखता, इसीलिए दंपत्ति को ऐसी कोई सुविधा भी उपलब्ध नहीं रहती.


आजकल महिला-पुरुष साथ पढ़ने और काम करने लगे हैं. यहीं बढ़ता मेल-जोल उनके बीच प्रेम रूपी भावनाओं का विकास करता है. वे दोनों सोचते हैं कि अब वह एक-दूसरे को इस हद तक समझ चुके हैं कि एक-साथ पूरी जिंदगी बिता सकते हैं. परिणामस्वरूप कभी परिवार वालों की मर्जी से या कभी उनकी मर्जी के खिलाफ जाकर वह विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं. लेकिन आंकड़ों की मानें तो यह साफ प्रमाणित होता है कि प्रेम-विवाह करने वाले लोगों के सामने जब जीवन की वास्तविकता आती है तो वह भी अपने प्रेम को भुलाकर केवल अपनी खुशियों और प्राथमिकताओं के बारे में सोचने लगते हैं. यहीं से उनके वैवाहिक जीवन में तनाव की शुरूआत होती है. आगे चलकर यही छोटे-छोटे मतभेद और मनमुटाव विकसित होने के बाद संबंधों के टूटने का कारण बनते हैं. परिवार वाले भी उनके व्यक्तिगत निर्णय में ज्यादा हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझते इसीलिए वे भी ऐसी समस्याओं को सुलझाने में न्यूनतम रुचि रखते हैं.


अकसर देखा जाता है कि प्रेम-विवाह करने वाले लोग मानसिक रूप से परिपक्व और अपनी आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता के विषय में संजीदा होते हैं. लेकिन विवाह के बाद उन्हें एक-दूसरे की यही परिपक्वता और आत्म-निर्भरता अखरने लगती है. जीवन-साथी हो या फिर ससुराल पक्ष, वह अपने व्यवासायिक और निजी जीवन में किसी भी तरह का हस्तक्षेप सहन नहीं कर पाते. परिणामस्वरूप उन्हें लगने लगता है कि विवाह के बाद उनका व्यक्तिगत जीवन पूरी तरह समाप्त हो चुका है. वह अपने इस निर्णय पर अफसोस करने लगते हैं. एक-दूसरे को समझने और धैर्य से काम लेने की बजाय वे अपने अहम और को ज्यादा महत्व देते हैं. समय के साथ परिस्थितियां सुधरती नहीं बल्कि और बिगड़ जाती हैं. जब विवाह के समय परिवार वालों की भागीदारी न्यूनतम रहती है तो वह उनकी समस्या को सुलझाने में भी ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते. समस्या गंभीर होती देख विवाहित दंपत्ति को भी यही लगने लगता है कि अगर परिवार वालों की मर्जी से विवाह किया जाता या थोड़ा और इंतज़ार कर लिया जाता तो शायद यह नौबत ना आती. परिवार वाले जो शुरू से ही प्रेम-विवाह के विरोध में थे, अपनी संतान को दोबारा खुशहाल देखने के लिए उसके तलाक के निर्णय को समर्थन देते हैं. ताकि वह अपने जीवन की नई शुरूआत कर सके.


भारतीय समाज में विवाह को एक ऐसी संस्था का दर्जा दिया जाता है जो संबंधित व्यक्ति और उसके परिवार को समान रूप से प्रभावित करती है. इसीलिए विवाह चाहे परंपरागत शैली से किया गया हो या अपनी इच्छा से प्रेम-विवाह, दोनो में ही परिवार वालों की सहमति और आपसी समझ बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. वैसे तो वैवाहिक संबंधों की नियति को पहले ही भांप लेना संभव नहीं है, हालांकि अपवाद तो सभी मामलों में होते हैं, लेकिन फिर भी विवाह का निर्णय लेने से पहले परिवार वालों की भागीदारी और उनकी भावनाओं का भी ध्यान रखा जाए तो इसके सफल होने की संभावनाएं काफी हद तक बढ़ जाती हैं.


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