हमारी सरकारें और कुछ तथाकथित समाज सुधारक भले ही समाज से जाति-व्यवस्था, वर्ग-विभाजन आदि जैसी मनुष्यों को एक-दूसरे से अलग करने वाली व्यवस्थाओं की उपस्थिति को समाप्त करने का दम भरते हों लेकिन वास्तविकता यह है कि सदियों पुरानी तमाम अमानवीय प्रथाएं जस की तस हमारे समाज में व्याप्त हैं. हां, इनके स्वरूप में कुछ हद तक परिवर्तन देखा जा सकता हैं, लेकिन हम इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि आज भी भारत के कई राज्यों में जाति-व्यवस्था जैसी परंपराओं का अनुसरण बिना किसी हिचक के साथ किया जा रहा है.
जाति-व्यवस्था के संदर्भ में बात करें तो यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अनुसार मनुष्य की जाति के आधार पर उन्हें निम्न और उच्च जैसे वर्गों में बांट दिया जाता है. जाति को ही नियति मानकर व्यक्ति के पैदा होने से पहले ही यह निर्धारित कर दिया जाता है कि कौन व्यक्ति समाज में एक सम्माननीय जीवन व्यतीत करेगा, और कौन समस्त जीवन में अन्य व्यक्तियों द्वारा किसी ना किसी रूप में केवल अपमानित ही होता रहेगा. मनुष्य के भीतर उपज रहे यही निम्नता के भाव उसे प्रगति करना तो दूर अपने हक के लिए लड़ना तक भी भुला देते हैं.
हमारा समाज हमेशा से ही ऐसी अनेक प्रकार की मार्मिक प्रथाओं को शरण देता आ रहा था. लेकिन जाति-व्यवस्था का राजनीतिक इस्तेमाल ब्रिटिश काल में अंग्रेजों द्वारा ही किया गया जिससे इसके भयावह स्वरूप को संरक्षण मिलना शुरू हो गया. भारत में अधिक समय तक शासन करने के लिए जरूरी था कि भारतीय को आपस में ही एक-दूसरे का शत्रु बना दिया जाए, ताकि उनका ध्यान सिर्फ पारस्परिक झगड़ों और विवादों में ही लगा रहे. ब्रिटिशों ने इसी रणनीति और “फूट डालो और शासन करो” की नीति को अपनाते हुए हमारे समाज को गर्त में धकेल दिया.
जाति व्यवस्था जैसी प्रथाएं ना सिर्फ लोगों को एक-दूसरे से अलग करती हैं, बल्कि यह सामाजिक उत्पीड़न और मनुष्य द्वारा अन्य मनुष्य के शोषण पर भी अत्याधिक बल देती हैं. एक अनुमान के अनुसार, अनुसूचित जाति से संबंधित 86.25 प्रतिशत लोग भूमिरहित हैं और गांव में रह रहे लगभग 49 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोग भूमिहीन किसान हैं, जिनके शोषण की दास्तां केवल यहीं तक सीमित नहीं है. हमारे संविधान द्वारा अस्पृश्यता जैसी घृणित कुप्रथाओं को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद भी अस्पृश्यता जैसा शर्मनाक मानव व्यवहार अभी भी विद्यमान है. भारत के कई ऐसे क्षेत्रों, विशेषकर गांव, में अनुसूचित जाति के लोगों को छूना अपराध या पाप माना जाता है. इतना ही नहीं, अस्पृश्यता के अतिरिक्त इन्हें और भी दयनीय और शोचनीय परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है. शहरी क्षेत्र में तो आधुनिकता और अवसरों की बयार ने स्थिति को थोड़ा परिमार्जित अवश्य किया है, किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में मूल रूप से निम्न कही जाने जातियों के पास अवसरों की सीमितता है और उन्हें जीवन जीने के लिए अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा करना भी भारी पड़ता है. उन्हें ना तो पर्याप्त खाना मिलता है, ना ही पीने के लिए स्वच्छ पानी. अभी भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहॉ नीची जातियों को मंदिर, स्कूल जाना और चप्पल पहनना तक वर्जित होता है. केवल सामाजिक तौर पर ही नहीं उन्हें आर्थिक तौर भी कई परेशानियों और अवहेलना का सामना करना पड़ता है.
भारतीय परिदृश्य में अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों के हालातों और समाज में इनकी स्थिति को निम्नलिखित प्रमुख संकेतकों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है. साथ ही यह भी प्रमाणित किया जा सकता है कि सरकारी दावे और वायदे कितने खोखले होते हैं.
उपरोक्त को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि लगभग हर सामाजिक-आर्थिक संकेतक यही सूचित करते हैं कि दलित वर्ग के लोगों की दुर्दशा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. किसी राष्ट्र की पहचान उसके मनुष्यों की जीवन शैली से होती है. अर्थात एक सभ्य राष्ट्र से यह उम्मीद की जाती है कि वह ना सिर्फ अपने नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान और सुरक्षित वातावरण उपलब्ध करवाए, इसके अलावा प्रगति और उन्नति के समान अवसर भी दे. लेकिन भारत जैसा प्रगतिशील राष्ट्र और उसके भीतर व्याप्त ऐसी समस्याएं उसे पूर्ण उन्नति नहीं करने दे सकतीं. संविधान द्वारा भले ही हमें समानता का अधिकार दे दिया गया हो, लेकिन व्यवहारिक तौर पर वह आज भी अपनी पहचान नहीं बना पाया. जब एक ही राज्य के नागरिक ही समानता के अधिकार से वंचित रहेंगे, तो हम कैसे यह उम्मीद कर लें कि संपूर्ण देश विकसित राष्ट्रों की सूची में अपना नाम सुनिश्चित करा सकेगा?
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