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[Sustainable Development] भारत को धारणीय विकास की दरकार

sustainable developmentएक समय पहले तक आर्थिक मंदी से जूझ रहा भारत, आज महत्वपूर्ण ढंग से प्रगति की राह पर चल पड़ा है. जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र शेष नहीं रह गया है जहां भारतीय नामों और शोहरत का विशिष्ट अध्याय ना गढ़ा गया हो. वैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक आदि कोई भी क्षेत्र हो वह भारत की पहुंच से अछूता नहीं रह सका. लेकिन अगर केवल इन उपलब्धियों को ही मानक मानकर हम यह कहें कि भारत विकसित राष्ट्रों की सूची में अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बनाने में सफल रहा है, तो शायद जल्दबाजी होगी. क्योंकि इस तथाकथित विकास के पीछे की एक हकीकत यह भी है कि एक ओर तो जहां नई-नई तकनीकों का विकास हो रहा है, लोग पहले की अपेक्षा कहीं अधिक सहज जीवन यापन कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत का एक बड़ा हिस्सा इन तकनीकों और विभिन्न संसाधनों तक अपनी पहुंच बना पाना तो दूर आज भी बिजली, पानी और भरपेट भोजन जैसी अपनी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने में भी असमर्थ है.


आर्थिक-सामाजिक विकास को लेकर जो भी नीतियां बनाई जाती हैं वह केवल शहरों पर ही केंद्रित होती हैं जबकि भारत की आधी से ज्यादा आबादी गांव और छोटे कस्बों में निवास करती है परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्र लगभग उपेक्षित ही रह जाते हैं.


ऐसे हालातों में भारत जो प्रगति कर रहा है उसे हम पूर्ण प्रगति नहीं कह सकते. यह केवल भ्रामक विकास की भांति हमें सांत्वना दे रहा है. कहीं ना कहीं यह शहरी-ग्रामीण असंतुलन हमारे लिए चेतावनी बनता जा रहा है. ग्रामों में बसी आबादी भी भारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और जब वही उपेक्षित और साधनहीन जीवन जीने के लिए विवश हो, विकास की परिधि से बाहर हो तो हम किस आधार पर भारत को एक विकसित राष्ट्र कह सकेंगे?


ग्रामीण इलाके आज भी बदहाली से ही गुजर रहे हैं. अस्वच्छता का वातावरण और प्रतिकूल परिस्थितियों की वजह से वहां रहने की कल्पना करना तक भी कठिन प्रतीत होता है. ग्रामों में ना तो आय के पर्याप्त साधन हैं और ना ही खाने और रहने की उचित व्यवस्था. अपनी इस दुर्दशा से त्रस्त आकर ग्रामीण, अपने परिवार को एक अच्छे जीवन देने के उद्देश्य से, अपने घर को छोड़कर कमाई करने के लिए शहर आने के लिए विवश हो जाते हैं.


गांवों से शहरों की तरफ लगातार हो रहा पलायन शहरों में संसाधनों की कमी को जन्म देता है. जब शहरों में आबादी का घनत्व बढ़ने लगेगा तो संभवत: पानी, बिजली, सार्वजनिक संसाधनों जैसी मौलिक आवश्यकताओं का दोहन और खपत भी पहले की अपेक्षा अधिक ही होगी.


इसी समस्या से निपटने और लोगों की बुनियादी आवश्यकताएं पूरा करने और शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में संतुलन बनाए रखने के लिए हमें निरंतर विकास करने की जरूरत है. ऐसा संतुलित विकास जो बिना किसी बाधा या रुकावट के हमारी आज की जरूरतों को तो पूरा करे ही, इसके अलावा हमें यह भी प्रयास करना चाहिए कि हमारी भावी पीढ़ियों को भी संसाधनों की कमी और तंगहाली का सामना ना करना पड़े.


एक अनुमान के मुताबिक शहरी लोग एक वर्ष में इतना ईंधन जला देते हैं जिसका निर्माण दस वर्षों में भी नहीं किया जा सकता. बिजली की उपलब्धता के लिए हम बांधों का निर्माण तो कर देते है लेकिन घरेलू स्तर पर हम उसकी अहमियत नहीं समझते हैं. शहरों की प्यास बुझाने के लिए नहरें खोद कर नदियों का पानी निकाल तो लेते हैं लेकिन नदियों में पानी बढ़ाने के लिए कुछ नहीं करते. यातायात के लिए नए-नए साधनों का उपयोग करते समय यह नहीं सोचते कि इससे निकलने वाले प्रदूषण से हमारा वातावरण किस हद तक दूषित हो रहा है.


विकास की राह पर चलते हुए हमें कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी इस धरती पर पाए जाने वाले खनिज, जैव संपदा और पानी जैसे संसाधन असीमित नहीं है. बल्कि हमारे निरंतर उपयोग से यह समाप्त ही हो रहे हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि हम हर साल धरती की संसाधन पैदा करते जाने की क्षमता से एक तिहाई ज़्यादा संसाधनों का प्रयोग करने लगे हैं. लेकिन आए-दिन बढती आबादी का घनत्व इतना अधिक है कि यह भी पूरा नहीं पड़ता. यह कहना गलत नहीं होगा कि संसाधनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग, उनका दोहन भी लगभग आधी आबादी को पर्याप्त मात्रा में बुनियादी सुविधाएं नहीं दे पा रहा है.


development भारत जैसे विकासशील देश को यह समझना होगा कि अगर हम संपूर्ण भारत की वास्तविक प्रगति को महत्व देते हैं तो विकास और आवश्यकताओं के सभी संसाधन महानगरों में झोंकने के बजाए गांवों और कस्बों के बुनियादी विकास पर ध्यान दिया जाए. गांवों में जरूरत के सारे साधनों की उपयुक्तता गांवों की दशा तो सुधारेगी ही साथ ही शहरी दबाव को कम करने में भी काफी हद तक सहायक होगी.


बिजली पानी जैसे मौलिक संसाधन सीमित हैं. यह इतनी जल्दी निर्मित नहीं होते हैं, जितनी जल्दी इनकी खपत होती है. अगर हम केवल अपने आज को ही प्रमुखता देकर इनका उपयोग करेंगे तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय ही करेंगे. हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने बाद की पीढ़ियों को एक स्वच्छ और सुविधापूर्ण वातावरण प्रदान करें, जिसके लिए हमें आज से ही काम करना शुरू करना होगा. इसके अलावा अगर हम खुद के लिए भी एक स्वस्थ वातावरण चाहते हैं और हमें धरती की क्षमता को बनाए रखते हुए संतुलित विकास करना है,  तो प्राकृतिक संसाधनों का निरंतर दोहन करने की बजाए उनके मूल्य को समझना होगा. साथ ही यह भी सीखना होगा कि उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम प्रयोग कैसे किया जाए ताकि ना तो हमें और ना ही भावी पीढ़ियों को किसी समस्या के दौर से गुजरना पड़े.


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