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शहरी-ग्रामीण असंतुलन ( Rural-Urban Divide )

कैसी विडंबना है कि एक ओर शहरी लोग विदेशों में काम करने और उच्च से उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने का स्वप्न देखते हैं, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण लोग आज भी अपने गांवों के बदतर हालातों से बाहर निकल शहरों में बसने के जुगाड़ में ही अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं.


rural areasब्रिटिशों के भारत छोड़ जाने के बाद भले ही देश को राजनीतिक रूप से पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति हुई हो, लेकिन जाते-जाते भी वह भारत को एक दर्दनाक विभाजन के दौर से निपटने के लिए छोड़ गए थे. विभाजन ने लोगों की एकता और उनकी भावनाओं को तो आहत किया ही, साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव भी तोड़ दी. भारतीय अर्थव्यवस्था तब पूर्ण रूप से कृषि पर ही निर्भर थी और विभाजन के दौरान अत्याधिक कृषि योग्य भूमि और कुछ उद्योग भारतीय भूमि से बाहर चले गए. परिणामस्वरूप पहले से ही भारतीय लोगों की बदहाल आर्थिक दशा और अधिक चरमरा गई. खासतौर पर गांवों और छोटे कस्बों में जहां आय के साधन ना के बराबर थे वहां तो हालात कई गुना ज्यादा गंभीर हो गए थे. यद्यपि महात्मा गांधी ने लघु और कुटीर उद्योगों के रूप में आम जनमानस को एक नई उम्मीद दिखा दी थी लेकिन केवल उस आधार पर आर्थिक हालातों को सुधारना व्यावहारिक नहीं था.


आजादी के बाद भारत की आर्थिक परिस्थितियां सुधारने के लिए कई योजनाएं बनाई गईं. पहले जहां अधिकांश उद्योग केवल सरकार के ही अधिकार क्षेत्र में थे, बाद में उनमें से अधिकांश को निजी क्षेत्र के लिए भी खोल दिया गया. संविधान में मनचाहा व्यवसाय करने की स्वतंत्रता, देश के किसी भी कोने में कार्य करने की आजादी आदि कुछ ऐसे प्रावधान किए गए जिनकी सहायता से प्रति व्यक्ति आय के साथ-साथ सकल घरेलू आय को भी बढ़ाया जा सके. वहीं दूसरी ओर वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नई आर्थिक नीतियों ने भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भी बढ़ावा दिया जिनके परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था की जटिलताएं काफी हद तो अवश्य कम हुई, लेकिन उन्हें पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सका. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आर्थिक सुधार से संबंधित अधिकांश नीतियों का निर्माण सिर्फ शहरों की प्रगति को ही केन्द्र में रखकर किया गया.

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में ही बसती है, अगर असली भारत को देखना हो तो ग्रामों की तरफ रुख करो. लेकिन उदारीकरण की इस प्रवृत्ति ने सिर्फ भारत के शहरों को ही आर्थिक और सामाजिक रूप से फलने-फूलने का मौका दिया है, असली भारत तो आज भी विपन्न और साधनहीन जीवन जीने के लिए विवश है.


urban areasविकास और प्रगति की इस बयार ने भारत को दो भागों, बैकवर्ड इण्डिया और शाइनिंग इण्डिया, में विभाजित कर दिया है. इसके तहत शहरी ढांचा तो महत्वपूर्ण ढंग से परिमार्जित हुआ है. फलस्वरूप बड़ी-बड़ी इमारतें, शिक्षा के उच्चतम संस्थान, आय और मनोरंजन के बेहतरीन साधनों के साथ-साथ व्यक्तियों के जीवन-स्तर में भी कई गुना इजाफा हुआ है.


लेकिन दुर्भाग्यवश असली भारत अर्थात गांव, बैकवर्ड श्रेणी में ही रह गए जहां ग्रामीणों की बिजली, पानी, शिक्षा और साफ-सफाई जैसी आधारभूत जरूरतें तक पूरी नहीं हो पातीं. एक अनुमान के अनुसार बिहार के छोटे-छोटे गांव और कस्बों में अगर 4 दिन में भी चार घंटे बिजली आ जाए तो एक बड़ी बात मानी जाती है. भारतीय ग्रामों की ऐसी दशा देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि ग्रामीण अपना जीवन किस लाचारी के साथ बिता रहे हैं. जहां शहरी लोग रोज नए-नए मानदंड बनाकर घर से निकलते हैं वहीं ग्रामीणों की दिनचर्या सिर्फ दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने और उसमें कोई रुकावट ना पड़े, इसी सोच में ही व्यतीत होती है.


ग्रामीण क्षेत्रों में आय के साधन पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं. तकनीक के विकास के इतने वर्षों बाद भी लोग कृषि आधारित ही जीवन ही जी रहे हैं. कुछ गांवों को छोड़ अधिकतर गांवों में तो कृषि के हालात भी ठीक नहीं हैं. धन की कमी के कारण किसान मौसमी कृषि में ही संलिप्त रहते हैं. परिणामस्वरूप वह साल के कुछ महीनों में ही काम करते हैं और बाकी समय उनके पास करने को कुछ नहीं होता. और अगर दुर्भाग्यवश उपज खराब हो गई या मनचाही आय प्राप्त नहीं हुई तो ऐसे में उनके भूखे मरने तक की नौबत आ जाती है.


bad condition of agricultureकृषि की खराब दशा और परिवार को भूखे मरने से बचाने के लिए ग्रामीण अपना घर, अपना परिवार सब कुछ छोड़कर शहरों की तरफ पलायन कर लेता है जो उसे भावनात्मक रूप से नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ शहरों में बढ़ती आबादी का भी कारण बनता है. कई बार तो पूरा का पूरा गांव ही शहरों की तरफ रुख कर लेता है, जिसकी वजह से शहरों में घनत्व और दबाव बढ़ने लगता है. साधनों का भारी मात्रा में उपयोग मूल्य ह्रास का कारण बनता है, जो कहीं न कहीं शहरी अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है.


यद्यपि मनरेगा के तहत सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार के एक वयस्क बेरोजगार को दैनिक 150 रूपए मजदूरी दिए जाने की योजना कानून के रूप में लागू की गई लेकिन यह भी उस हद तक प्रभावी नहीं हो सकी कि ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन रोक गांवों में ही उनके जीवनस्तर को सुधारा जा सके.


शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ता असंतुलन हमारे भविष्य के लिए एक चेतावनी बनता जा रहा है. जब हम यह कहते हैं कि हमारे गांव प्रगति नहीं कर रहे या ग्रामीणों की वास्तविक हालत खराब है तो यह तथ्य सिर्फ गांवों की परिस्थिति को चिन्हित नहीं करता बल्कि शहरों के लिए भी एक चिंता का विषय बन जाता है. क्योंकि जब गांव दयनीय चरण से गुजर रहे हों तो शहर इससे कैसे अछूते रह सकेंगे. कहीं ना कहीं कुछ नकारात्मक प्रभाव उन पर भी पड़ेगा. बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारी, साधनों का अभाव, महंगाई, उत्पादकता की कमी होना आदि ऐसे ज्वलंत उदाहरण हैं जिनसे हमें आज गुजरना पड़ रहा है. यह बात विचारयोग्य है कि जब हम आज ऐसी परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं तो आगे तो संभवत: हालात और खराब ही होंगे.


भविष्य में ऐसी किसी नकारात्मक परिस्थितियों से हमें दो-चार ना होना पड़े इसके लिए जरूरी है कि हमारी सरकार समय रहते ही ठोस कदमों को उठाए. ऐसी योजनाओं और तकनीकों का विकास किया जाए जो ग्रामीण क्षेत्रों में भी समान रूप से प्रभावी रहें. शिक्षा और बिजली के पर्याप्त साधन अपनाए जाएं, उन्हें रहने के लिए एक स्वच्छ वातावरण प्रदान किए जाएं ताकि शहरों की तरफ उनके पलायन को रोका जा सकें. अगर हमारी सरकारें समान रूप से गांवों की प्रगति पर भी ध्यान देंगी तभी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच खाई को पाटा जाना संभव हो सकता है.


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