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बलात्कार के दंश का रॉयलटी मरहम !!

rape victimबलात्कार की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर, पीड़िता की मनोदशा को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय सरकार उसे दो लाख रूपयों तक की आर्थिक सहायता प्रदान करने की योजना बनाने पर विचार कर रही है. यह योजना महिला एवं बाल-विकास मंत्रालय की सिफारिश पर बनाई जा रही है. इस योजना के अंतर्गत बलात्कार की पुष्टि होते ही 15 दिनों के भीतर पीड़िता को 20,000 रूपए दे दिए जाएंगे. निर्धारित अंतराल के बाद उसे बाकी की किश्त प्रदान की जाएगी. अगर पीड़िता नाबालिग है तो मुआवजे के रूप में दी जाने वाली राशि तीन लाख रूपयों तक बढ़ाई जा सकती है.


उत्तर-प्रदेश सरकार बलात्कार की आए-दिन होने वाली घटनाओं के विषय में केन्द्रीय सरकार की अपेक्षा थोड़ी ज्यादा जागरुक है इसीलिए पहले जहां पीड़िता को केवल 50,000 रूपए दिए जाते थे, वहीं अब उसे 25,000 रूपए की राशि बलात्कार की प्रथम दृष्टया पुष्टि होने पर और दो लाख रूपए मुआवजे के तौर पर देने की योजना बनाई जा चुकी है, जो एक अगस्त से लागू हो जाएगी. इसका आशय यह है कि पहली अगस्त के बाद जो महिलाएं अपनी इज्जत गंवाएंगी, किसी हैवान की क्रूरता का शिकार बनेंगी, वह इस योजना के अनुसार लखपति हो जाएंगी.


लेकिन क्या हमारी सरकारें बलात्कार को भी ऐसे हादसों की श्रेणी में रखती हैं जिसके घाव समय के साथ और पैसे की छाया में मिट जाएंगे?


सरकार द्वारा बनाई गई यह योजना स्पष्ट रूप से प्रमाणित करती हैं कि भावनाएं और दर्द जैसे शब्द हमारी सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखते. साथ ही हमारी न्यायिक व्यवस्था की लाचारी को भी ऐसी योजनाएं साफ दर्शाती हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें पैसे की चमक दिखा कर पीड़िता को उस पर हुए अत्याचार को भुला देने के लिए प्रेरित कर रही हैं.


उल्लेखनीय बात तो यह है कि यह योजना सरकार ने उन संगठनों और तथाकथित समाज सेवकों के साथ मिलकर बनाई है जो महिलाओं के अधिकारों और उनकी दशा को सुधारने के लिए खोखले प्रयत्न करने का दावा करते हैं. उन्हें भी यह समझ नहीं आया कि पैसा किसी के घाव पर मरहम नहीं लगा सकता, ना ही किसी के दर्द को खरीद सकता है. पैसा सिर्फ किसी की गरीबी और लाचारी का मजाक बना सकता है.


हमारी मौलिकता और संस्कृति तो पहले ही आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकी हैं. इसका अनुसरण करना अब हमारी सरकारों ने भी शुरु कर दिया है. जहां बलात्कार जैसे अमानवीय और जघन्य कृत्य, जो एक महिला से उसका सब कुछ छीन लेते हैं, उसे पैसे की आड़ देकर दबाने की कोशिशें अब तेज होने लगी हैं.


बाजारीकरण की भावना इस कदर लोगों के मस्तिष्क पर हावी हो चुकी है कि एक महिला की लाचारी और उसकी इज्जत को रॉयलिटी के रूप में खरीद लिया जाता है. बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए कोई ठोस कदम ना उठा सकने के एवज में सरकारे चंद रूपए देकर महिला को चुप कराने की योजना का प्रारूप तैयार करने में जुट गई हैं. इसे अब भावनाओं से खिलवाड़ कहें या निर्ममता, परोक्ष रूप में सरकारें, पीड़िता को उन महिलाओं की श्रेणी में रख रही हैं, जो पैसों के लालच में आकर अपने देह का सौदा करने को तैयार हो जाती हैं.


ऐसी योजनाएं जहां हमारी न्याय प्रणाली की धीमी गति और पीड़िता के प्रति सरकारी उदासीनता की ओर इशारा करती हैं वहीं इसे व्यावहारिक और बिना किसी विवाद के लागू करना भी अपने आप में एक चुनौती है. क्योंकि हमारे भारत, खासतौर पर गांव-देहातों में गरीबी इस कदर हावी है कि लोगों के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी नामुमकिन हो जाता है. रोजी-रोटी के लिए वह कोई भी रास्ता अपनाने के लिए विवश हो जाते हैं. परिवार को भूखा सोते देख जब वह सही-गलत तक की परवाह नहीं करते तो ऐसे में इज्जत, मान-मर्यादा जैसे शब्द उनके लिए गौण हो जाता है.


कई बार महिलाएं और लड़कियां पैसे के लालच में, अपनी मर्जी से संबंध स्थापित करती हैं, जिन्हें कतई बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता फिर भी वे मुआवजे का दावा करेंगी तो?  बलात्कार के बाद कराए जाने वाले परीक्षण भी शारीरिक संबंधों की पुष्टि कर सकते हैं लेकिन उनसे यह साबित नहीं हो सकता कि संबंध पारस्परिक सहमति से बनाए गए हैं या फिर जोर-जबदस्ती से. ऐसे में दिए जाने वाले मुआवजे का गलत इस्तेमाल होने की संभावनाएं काफी हद तक बढ़ जाती हैं.


भारत के गांवों में व्याप्त गरीबी और भुखमरी से जुड़ा एक सत्य यह भी है कि आर्थिक तंगहाली से विवश होकर चंद पैसों के लिए परिवार खुद ही अपनी बेटी-बहुओं की इज्जत का सौदा कर देता है. अब अगर यह योजना लागू हो गई तो इस सौदे को कानूनी संरक्षण मिलने के परिणामस्वरूप ऐसी घटनाओं को भी बढ़ावा मिलेगा साथ ही पुरुषों के भोगी और वहशी चरित्र को भी मान्यता मिल जाएगी.


justice in indiaसंविधान द्वारा हमारे राष्ट्र को एक कल्याणकारी राज्य घोषित किया गया है, जो व्यक्तियों को एक सुखद और उन्नत वातावरण प्रदान करने के लिए बाध्य है. लेकिन हमारी सरकारों और तथाकथित समाज सेवकों ने मनुष्य की खुशियों को पैसे के तराजू में तौलकर देखना शुरु कर दिया है. उनका मानना है कि पैसे से कोई भी गम खरीदा जा सकता है. सड़क हादसा हो या रेल दुर्घटना उन पर काबू पाने की कोशिश करने की बजाय पीड़ितों को मुआवजा देकर चुप करा दिया जाता है. जिन लोगों ने अपने प्राण खो दिए, जिन्होंने इन हादसों में अपने परिजनों को खो दिया, उनकी वेदना के प्रति हमारी सरकार कभी ध्यान नहीं देती और अगली घटना होने का इंतज़ार करती है.


यह योजना भी नागरिकों के प्रति सरकार के कर्तव्यों और दृष्टिकोण की संकीर्णता की कलई खोलती प्रतीत होती है. समाज में बढ़ते अपराध पर लगाम कसने, दोषियों को सजा दिलवाने और पुलिस और न्यायिक व्यवस्था को चुस्त करने की बजाय मुआवजे की राशि बढ़ा देना किसी कल्याणकारी सरकार की पहचान नहीं हो सकती. बढ़ती गरीबी और तंगहाली भी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के गिरते हुए ग्राफ का एक प्रमुख कारण है. क्योंकि आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जो अपनी विवशता और परिवार के लिए प्रतिबद्ध होने के कारण चंद रूपयों के लिए दूसरे की जान ले लेते हैं, अपने देह का सौदा करते हैं या फिर अवैध कार्यों में संलिप्त हो जाते हैं.


सरकार का नागरिकों के प्रति दायित्वों का दायरा विस्तृत होता है जो केवल आर्थिक सहायता तक ही नहीं होता. सरकार का मौलिक कर्तव्य राज्य में कानून व्यवस्था को बनाए रखना होता है ताकि किसी भी प्रकार के अनैतिक कृत्य को अंजाम ना दिया जा सके. लेकिन सरकार द्वारा बनाई जाने वाली ऐसी योजनाएं निश्चित तौर पर सरकार के ढीले और लाचार रवैये को समाज के सामने लाती है. और यही कर्तव्यबोध की कमी लोगों में सरकार के प्रति आस्था और विश्वास को घटाती है. केन्द्रीय सरकार हो या राज्य सरकार, दोनों को ही अपने पद की महत्ता और लोगों के प्रति अपनी उत्तरदायित्वों का ज्ञान होना चाहिए. साथ ही इस बात को भी समझना चाहिए कि देश की प्रगति और नागरिकों के जीवन के विकास का बोझ उन्हीं के मजबूत कंधों पर है.


बलात्कार जैसे अपराधों को पैसे के तराजू में तौलना पीड़िता के साथ अपराध करना होगा. उसकी वेदना का मखौल उड़ाना होगा. इसके विपरीत सरकार को चाहिए कि ऐसे मसलों पर संवेदनशील होकर काम करे. पीड़िता के प्रति सहानुभूति रखते हुए उसे जल्दी न्याय दिलवाए और बलात्कार जैसे अपराधों के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा प्रदान की जाए ताकि फिर कोई पुरुष किसी भी महिला की इज्जत से खिलवाड़ करने की हिम्मत ना जुटा पाए.


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