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[Love Marriage] प्रेम विवाह – अच्छा या बुरा ?

indian marriages बदलती सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां, पारिवारिक रीति-रिवाजों और मान्यताओं को भी महत्वपूर्ण ढंग से परिवर्तित करती हैं. वर्तमान भारत के इस आधुनिक दौर में ऐसी सामाजिक मान्यताएं, जो व्यक्ति की इच्छाओं और उसके हितों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं, पूर्ण रूप से अपना औचित्य खो चुकी हैं. बदलावों की सूची में विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था, जो केवल एक सम्माननीय संस्था ही नहीं बल्कि एक ऐसा संबंध भी है, जो दो व्यक्तियों के जीवन में एक नया पड़ाव लाने के साथ ही दो परिवारों को भी आपस में जोड़ने का कार्य करता है, के स्वरूप में आए बदलाव को सबसे अहम स्थान दिया जा सकता है. पहले के समय में नियमानुसार विवाह संबंधी सभी निर्णय परिवार के सदस्य अपनी बिरादरी और जाति में ध्यान में रखकर लेते थे. विवाह योग्य महिला और पुरुष की सहमति और उनकी अपेक्षाएं कोई मायने नहीं रखती थीं. लेकिन अब ऐसे नियम और कानून विलुप्त होते जा रहे हैं. अब युवक और युवतियों की सहमति-असहमति विवाह से संबंधित कोई भी निर्णय लेने में अहम भूमिका निभाती है.


वर्तमान समय में महिलाएं भी, पुरुषों के ही समान शैक्षिक और व्यावसायिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं तो ऐसे में उनकी पसंद-नापसंद और अपने साथी के प्रति उनकी अपेक्षाएं किसी भी संबंध निर्धारण हेतु एक बहुत बड़ा मानक बन जाती हैं.


आमतौर पर यह देखा जाता है कि आज के दौर में जब युवक और युवतियां एक साथ पढ़ते और काम करते हैं तो ऐसे में भावनात्मक रूप से वे दोनों एक-दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं, परिणामस्वरूप दोनों में प्रेम संबंध स्थापित हो जाता है और जब यह प्रेम-संबंध अधिक गहरा हो जाता है तो दोनों विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं. पहले जहां माता-पिता स्वयं अपने निर्णयों पर भी बच्चों की सहमति की परवाह नहीं करते थे, आज विवाह से संबंधित उनके स्वतंत्र निर्णय पर अपनी रजामंदी दे देते हैं. क्योंकि वह पहले की अपेक्षा अब उतने परंपरागत विचारधारा वाले नहीं रहे, साथ ही अब वह अपने बच्चों की भावनाओं को समझने लगे हैं.


प्रेम-विवाह के कुछ नकारात्मक पहलू


जैसा की नाम से प्रतीत होता है कि प्रेम-विवाह एक ऐसा संबंध है जिसका आधार केवल युवक और युवती के बीच का आपसी प्रेम होता है. इसके तहत दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित हो जाने के बाद, परिवार वालों की रजामंदी के बगैर भी अपना पूरा जीवन साथ बिताने के लिए राजी हो जाते हैं.


प्रेम-विवाह जैसे संबंधों में महिला और पुरुष व्यक्तिगत तौर पर विवाह करने का निर्णय कर लेते हैं, ऐसे में अभिभावकों और परिवार वालों की भूमिका नाम मात्र रह जाती है. ऐसी परिस्थिति में दोनों के बीच अगर कोई विवाद उत्पन्न हो तो वह पूर्ण रूप से उनका आपसी मसला बन जाता है. हालांकि पर्याप्त समय बिताने के कारण दोनों पक्षों में आपसी संबंध इतना परिपक्व हो जाता है कि वे एक-दूसरे के गुणों और दोषों को समझने लगते हैं. और विवादों के उभरने की संभावनाएं कम ही रहती हैं, लेकिन अगर कभी ऐसा होता भी है तो इस समस्या का निवारण उन्हें स्वयं ही करना पड़ता है. उनके प्रति परिवार वालों की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है.


यद्यपि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझते हैं साथ ही एक-दूसरे की खामियों और कमजोरियों से भी अवगत होते हैं, लेकिन कई बार प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते दोनों के बीच मतभेद पैदा हो जाते हैं. क्योंकि यह संबंध व्यक्तिगत होता हैं इसीलिए परिवार वाले भी हस्तक्षेप कर विवाद को सुलझाने में अक्षम रहते हैं.


विवाह जैसा महत्वपूर्ण संबंध दो लोगों को परस्पर उत्तरदायी बना देता है, वहीं प्रेम-विवाह में उत्तरदायित्व का महत्व और अधिक इसीलिए बढ़ जाता है, क्योंकि साथ-साथ पर्याप्त समय बिताने के कारण दोनों में भावनात्मक लगाव, परंपरागत विवाह से कहीं अधिक होता है. लेकिन देखा यह जाता है कि समय के साथ-साथ आपसी जुड़ाव की भावना में भी कमी आने लगती है. इसके परिणामस्वरूप लोग एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भूलने लगते है और संबंध के स्थायी बनाए रखने में दूसरे की भूमिका को प्रधान मानते हैं.


प्रेम विवाह – एक सकारात्मक संबंध

love marriageप्रेम-विवाह जैसे संबंध पूर्ण रूप से दो व्यक्तियों की आपसी समझ पर आधारित होते हैं, जिनका आधार केवल प्रेम ही नहीं बल्कि पारस्परिक विश्वास और सम्मान होता है. ऐसे में स्वाभाविक ही है कि दोनों अपनी प्राथमिकताओं को जान कर ही विवाह जैसे बड़े निर्णय को लेने की पहल करते हैं. परिणामस्वरूप दोनों के खुशहाल जीवन की संभावनाएं काफी हद तक बढ़ जाती हैं.


प्राचीन भारतीय समाज में जबकि विवाह के संबंध में युवक और युवतियों की सहमति नहीं ली जाती थी, ऐसे में वे अपने संबंध को अपने परिवारवालों का आदेश मात्र मानकर उम्र भर उसका बोझ ढोने के लिए बाध्य होते थे. जबकि प्रेम-विवाह में ऐसी किसी भी जटिल स्थिति की संभावना के लिए स्थान शून्य के बराबर होता है. वैवाहिक संबंध में शामिल जोड़े आपसी सहमति और खुशी के साथ संबंध का निर्वाह करते हैं और पारस्परिक अपनापन कम नहीं होने देते.


जहां पहले बच्चे खासतौर पर महिलाएं पूर्ण रूप से अपने माता-पिता के आदेशों पर ही निर्भर होती थीं, आज वहीं आत्म निर्भर बन अपने अच्छे-बुरे को समझने लगी हैं. इस कारण वह यह भली प्रकार समझती हैं कि उनके लिए कैसा जीवन साथी उपयुक्त रहेगा. इसी आधार पर अगर वह प्रेम-विवाह करने का निर्णय लेती हैं तो यह बात स्वाभाविक है कि यह उनका अपना स्वतंत्र और व्यक्तिगत निर्णय होता है.


इसके अलावा एक दूसरे को जानने और समझने के बाद दोनों मे औपचारिकता जैसी भावना समाप्त हो जाती है और दोस्ती का अहम रिश्ता स्थापित हो जाता है. जिसके फलस्वरूप वे दोनों एक-दूसरे के साथ अपेक्षाकृत अधिक सहज हो जाते हैं.


उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भले ही प्रेम-विवाह जैसा संबंध आधुनिक युग और पाश्चात्य संस्कृति की देन हो. लेकिन वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर अब यह एक प्रासांगिक व्यवस्था बन गई है. हालांकि विवाह जैसा संबंध दो परिवारों को भी समान रूप से प्रभावित करता है, लेकिन मूलरूप से यह एक ऐसी संस्था है जो केवल पति-पत्नी से ही संबंधित होती है. इसमें विवाद होना कोई ऐसी घटना नहीं है जो केवल प्रेम-विवाह या परंपरागत विवाह से ही संबंधित है. विवाह का मौलिक महत्व दो व्यक्तियों के जीवन को सुचारू रूप से चलाना और उन्हें आत्मिक सुख प्रदान करना होता है और अगर प्रेम-विवाह के फलस्वरूप दो व्यक्ति एक-दूसरे के साथ को सहज महसूस करते हैं और अपना भविष्य एक-दूसरे के साथ सुरक्षित महसूस करते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं देखी जानी चाहिए.


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