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महिलाएं ही क्यों बदलें सरनेम

परंपरावादी राष्ट्र होने के साथ-साथ भारतीय समाज मौलिक रूप से एक पुरुष प्रधान समाज है. प्रारंभिक काल से ही यहां पुरुषों का वर्चस्व रहा है, दूसरी तरफ महिलाओं को हमेशा से ही एक आश्रित की भांति समझा गया है, जिसे हर कदम पर पुरुष के सहारे की आवश्यकता पड़ती है. संकीर्ण मानसिकता और खोखली मान्यताओं पर आधारित हमारा समाज कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि जिन रीति-रिवाजों को वह अपनी शान समझता है, वह केवल महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कमजोर दर्शाने के लिए ही बनाई गई हैं. देखा जाए तो आरंभ से ही महिलाओं को किसी न किसी रूप में इन परंपराओं और रिवाजों की भेंट चढ़ाया जाता रहा है. बेमेल विवाह, बाल विवाह, बहु विवाह ऐसी ही कुछ कुप्रथाओं के मुख्य उदाहरण हैं जो यह स्पष्ट कर सकते हैं कि समाज के ठेकेदारों ने महिलाओं को पुरुषों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली से अधिक कुछ नहीं समझा.


working womanआज महिलाएं भले ही घर के बाहर अपनी पृथक पहचान बनाने में सफल हो रही हैं, लेकिन घर के भीतर उन्हें आज भी अपनी व्यक्तिगत उपस्थिति साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारा पुरुष प्रधान समाज कभी भी यह नहीं चाहता, कोई महिला अपने आप में इतनी सक्षम हो सके कि उसे किसी दूसरे की खासकर किसी पुरुष के सहारे की जरूरत ना पड़े. अपनी झूठी साख को बचाने के लिए कभी संस्कृति तो कभी मान्यताओं का नाम लेकर महिला का दमन करने का भरसक प्रयास किया जाता है. हमारी परंपरा है कि विवाह के बाद महिला अपने पिता का घर छोड़ अपने पति के घर चली जाती है. इतना ही नहीं जिस नाम ने उसे पहचान दिलाई, जिसे उसने पैदा होते ही अपना लिया था, उसे उसका त्याग करना पड़ता है ताकि वह अपने पति के सरनेम को अपना सके. ऐसा मूल रूप से  महिला को उसके पति की संपत्ति मानने के कारण होता रहा है. यह इस बात को साबित करता है कि हमारा पुरुषवादी समाज महिलाओं को अपने अधीन रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता. यहां अहमीयत किसी महिला को नहीं उसके सरनेम को दी जाती है. विवाह से पहले उसे उसके पिता के नाम के सहारे आगे बढ़ना पड़ता है और विवाह के बाद उसे अपने पति के सरनेम को अपनाने के लिए बाध्य कर दिया जाता है.



लेकिन यहां प्रश्न यह उठता है कि आज जब महिलाएं वैवाहिक जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, आर्थिक सहायता देने की बात हो या गृहस्थी संभालने की जिम्मेदारी, महिलाओं को किसी भी रूप में पुरुषों से कमजोर नहीं कहा जा सकता, तो ऐसा क्यों होता है कि विवाह के बाद केवल महिलाओं को ही अपने सरनेम को बदलने की जरूरत पड़ जाती है. वह चाहें या न चाहें उन्हें अपना सरनेम बदलना ही पड़ता है. भारत में यह परंपरा भले ही सदियों पुरानी हो, लेकिन अब परिस्थितियां पहले जैसी नहीं रहीं. जहां पहले महिलाएं अपनी हर जरूरत को पूरा करने के लिए पूर्ण रूप से अपने पिता या पति पर ही निर्भर रहती थीं, यहां तक की उनकी कोई अपनी सामाजिक पहचान भी नहीं थी, उनका काम केवल गृहस्थी संभालना भर था, बिना किसी पुरुष के साथ के वह घर के बाहर कदम ही नहीं रख सकती थीं, वहीं आज महिलाएं आर्थिक रूप से इतनी सशक्त हो चुकी हैं कि वह अपने बलबूते अपनी पहचान बना सकें. उन्हें किसी सरनेम की जरूरत नहीं हैं, वह अपने हर कर्तव्य का निर्वाह करने में सक्षम हैं, तो फिर विवाहोपरांत उन्हें अपने पति के नाम को अपनी पहचान बनाने के लिए क्यों बाध्य कर दिया जाता है. एक तरफ तो यह कहा जाता है कि वैवाहिक जीवन पति-पत्नी दोनों के सहयोग से चलता है और दोनों एक ही गाड़ी के दो पहियों की भांति होते हैं, तो फिर दोनों में भेद-भाव क्यों किया जाता हैं? एक व्यक्ति के हितों को महत्व देते हुए, दूसरे की भावनाओं को क्यों आहत किया जाता है?


जब आज महिलाएं भी समान रूप से सक्षम हैं और जरूरत पड़ने पर वह अकेले, अपने दम पर पूरे परिवार को संभालने की काबिलियत रखती हैं, तो वह क्यों अपने पति के नाम की मोहताज बनें?


हमारी यह परंपराएं कहीं न कहीं यह साबित करती हैं कि भले ही आज सरकार महिलाओं को सशक्त करने की बात कर रही हो लेकिन जमीनी सच्चाई को नहीं झुठलाया सकता. सच यही है कि महिलाओं को अपने अधीन रखना हमेशा से ही पुरुषों का शौक रहा है और जिसके अब वो आदी हो चुके हैं.


आज भी कई ऐसी महिलाएं हैं कि वह पति के आश्रय तले अपना जीवन जीने को अपनी शान समझती हैं, लेकिन वह यह नहीं जानतीं कि जिसे वह शान समझ बैठी हैं, वास्तव में वह उनके लिए कितना अपमानजनक हैं. किसी भी व्यक्ति के लिए उसका नाम और उसकी अपनी पहचान बहुत मायने रखती है और जब कोई इसी पहचान को छीनने का प्रयास करे और इसमें सफल भी हो जाए तो यह सीधा हमारे आत्मसम्मान पर प्रहार करता है. और आज की महिला जो अपने आत्मसम्मान का महत्व बखूबी जानती है. वह कभी ऐसा नहीं चाहेगी कि उसे किसी और व्यक्ति, चाहे वह उसका पति ही क्यों न हो, के नाम को अपनाने के एवज में अपनी मौलिक पहचान को खोना पड़े. जिस समाज में सती-प्रथा जैसी घिनौनी परंपरा विद्यमान रही हो, जो पति की मृत्यु के पश्चात पत्नी के जीवन को ही व्यर्थ समझता हो, उस समाज से यह उम्मीद रखना कि वह पत्नी को अपनी एक व्यक्तिगत पहचान साबित करने का मौका दे, थोड़ा अटपटा ही लगता है.


self dependent ladyभले ही विवाह के पश्चात महिला का सरनेम बदलने की परंपरा जैसे विषय को हमारा समाज एक स्वाभाविक परिवर्तन मानता हो, लेकिन वर्तमान संदर्भ में इसे स्वाभाविक कहना किसी भी महिला और उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाना होगा. हां, अगर इस विषय को कुछ समय पहले उठाया गया होता तो शायद यह उतना प्रासंगिक नहीं होता क्योंकि तब महिलाओं की दशा नि:संदेह एक आश्रित से अधिक और कुछ नहीं थी. समाज में उन्हें एक अबला का ही स्थान प्राप्त था, उन्हें केवल एक भोग्या के रूप में ही देखा जाता था, लेकिन वर्तमान परिदृश्य इससे बिल्कुल अलग हैं. आज अगर पुरुष बाहर काम के लिए जाते हैं तो महिलाएं भी जाती हैं, अगर वह घर की आर्थिक ज़िम्मेदारी उठाते हैं, तो ऐसे कई परिवार हैं जिनके भरण-पोषण की पूरी ज़िम्मेदारी एक महिला के कंधों पर ही है.


समाज के ठेकेदार इन्हें परंपराओं का नाम देते हैं लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि परंपराओं और रूढ़ियों के बीच एक गहरा अंतर होता है जिसे नज़रअंदाज करना हम सभी के लिए हानिकारक साबित हो सकता है. वस्तुतः परंपराएं वह सामाजिक मान्यताएं होती हैं जो भले ही लंबे समय से चली आ रही हैं, लेकिन उनका स्वरूप जटिल नहीं होता. उन्हें समय और परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तित किया जा सकता है. लेकिन ऐसी मान्यताएं जो केवल समाज के एक वर्ग का दमन करने के लिए ही बनाई गई हों, जो समाज को दो वर्गों शोषक और शोषित में विभाजित कर दें. ताकि शोषक मनचाहे तरीके से अपनी ताकत का प्रयोग दूसरों पर कर सकें, उन्हें रुढ़ि की संज्ञा देना उचित है.



आज हमारा समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जब व्यक्तिगत पहचान के मायने बढ़ने लगे हैं. अब ऐसे में एक की पहचान को मजबूत करने के लिए, दूसरे की पहचान को धूमिल कर देने वाली परंपराओं का क्या औचित्य रह गया है. यह बात किसी नए बहस को जन्म जरूर दे सकती हैं, लेकिन इस विषय को नज़रअंदाज करना किसी बात का हल नहीं हो सकता.


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