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Efficiency of employees will decide the quality of production- काम के घंटे नहीं, क्षमता है महत्वपूर्ण

हाल ही में महाराष्ट्र (Maharashtra) के मुख्यमंत्री, पृथ्वीराज चौव्हाण (Prithviraj Chavan) ने सामान्य प्रशासनिक विभाग (General Administrative Department) द्वारा दिए गए उस प्रस्ताव (Proposal)  को खारिज कर दिया है, जिसके अनुसार सरकारी (Government) और अर्धसरकारी (Semi-government) कर्मचारियों (Employees) को हफ्ते में पांच दिन ही काम करना होगा. उल्लेखनीय है कि इस प्रस्ताव में यह अनुच्छेद (Clause)  भी शामिल किया गया था कि काम के दिनों की क्षतिपूर्ति  (Compensate) करने के एवज में कर्मचारियों को दिन में आठ घण्टे (8 Hours) की जगह आठ घण्टे पैंतालिस मिनट (8.45 hours) काम करना होगा.


एक सर्वेक्षण (Survey) में आए नतीजों पर नज़र डालें तो यह साफ हो जाता है कि उत्पादकता (Production) में वृद्धि, काम के दिनों या घण्टों मे बढ़ोत्तरी करने से नहीं बल्कि कुशल (Efficient) और प्रभावी (Effective)  होकर काम करने से आती है.


इस प्रस्ताव (Proposal) को न मानते हुए मुख्यमंत्री  (Chief minister) चौव्हाण  (Chavan) ने विभाग को पूर्व निर्देशित (Pre-Directed) नियम (Rules) पर ही स्थिर रहने को कहा है, जिसके अंतर्गत सरकारी कर्मचारियों को महीने के दूसरे और चौथे शनिवार (Saturday) छुट्टी  मिलने का प्रावधान (Regulations) है.


GAD के इस प्रस्ताव के पीछे दी गई दलील (Argument) बिल्कुल साफ थी कि हफ्ते में छ: दिन काम करने के बाद एक छुट्टी मिलना काफी नहीं रहता, क्योंकि वह एक दिन तो बस थकान उतारने में ही बीत जाता है. इससे व्यक्ति ना तो अपने परिवार को समय दे पाता है और न ही खुद के लिए समय निकाल पाता है, फलस्वरूप, उसे व्यक्तिगत (Personal) और पारिवारिक (Familial) तौर पर कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा हफ्ते में एक दिन कम आने की वजह से बिजली, ईंधन आदि की खपत पर भी सकारात्मक असर (Positive Impact) पड़ेगा.


भारत (India)  जैसे प्रगतिशील देश (Developing Country)  में हफ्ते में छ; दिन काम करने का प्रावधान है, वहीं अधिकतर पश्चिमी देश (Western countries), जैसे अमेरिका (America), लंदन(London), ऑस्ट्रेलिया (Australia) आदि में कर्मचारी  (Employees)  केवल पांच दिन ही कार्य करते हैं, लेकिन फिर भी उनकी उत्पादक क्षमता ( Production Capacity)  हमसे काफी हद तक अधिक है.


ऐसा कतई नहीं है कि हमारे पास आधुनिक तकनीकों (Modern Techniques) या दक्ष कर्मचारियों (Skilled workers) की कमी है, बल्कि वैश्विक रूप मे देखा जाए तो आज कितने भारतीय ऐसे हैं, जो विदेशों में भी बड़े और महत्वपूर्ण पदों ( Post) पर कार्यरत हैं.


stressed employeeअब यहां सवाल यह उठता है कि, जब हमारे पास दक्षता और तकनीक की कोई कमी नहीं है तो फिर उत्पादकता (Production)  के मामले मे हम पाश्चात्य देशों (Western Countries) से पीछे क्यों हैं?


इसका जवाब बिल्कुल सरल है. हमारे व्यावसायिक संस्थान (Occupational Institutes) चाहे फिर वह सरकारी (Government) हों, अर्धसरकारी (Semi government) हों, या फिर निजी (Private) ही क्यों ना हों, कर्मचारियों (Workers) से ज्यादा से ज्यादा और समय पर काम करने की अपेक्षा (Expectation) तो करते हैं, लेकिन कर्मचारियों की उपेक्षा (Neglect) करने में पीछे नहीं रहते. वह केवल उनके काम करने के घण्टों के आधार पर उनके काम को आंकते (Judge) हैं. अर्थात अगर कोई कर्मचारी कम समय में काम निपटा दे तो, उसके काम को तरजीह नहीं दी जाती, इसके अलावा उसकी क्षमता (Ability)  पर भी सवाल उठाए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अगर कोई अल्प-दक्ष (Semi-Skilled) कर्मचारी उसी काम के लिए अधिक समय लेता है तो उसके काम को सराहा (Appreciate) जाता है, जिसका नकारात्मक प्रभाव (Negative affect) कुशल ( skilled)  व्यक्ति की कर्यक्षमता और मनोबल पर पड़ता है. उसके अंदर काम करने का उत्साह (Enthusiasm) मर जाता है, वह अपने काम को मजबूरी समझ के दैनिक नियम (Daily Routine) के तौर पर करता है, और कुछ भी नया करने की नहीं सोचता, जिसका खामियाज़ा उस संस्थान की उत्पाद-गुणवत्ता  पर पड़ता है.


सरकारी संस्थानों ( Government Institutions) का हाल तो जग-जाहिर है ही, बस जैसे तैसे काम करना है, न तो कभी उनमें काम करने की लगन देखी जा सकती है और ना ही कोई इच्छा. कार्य पूर्ण हो या ना हो, उन्हें समय पर वेतन (Salary) जरूर मिल जाता है. लेकिन निजी क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति भी आज काम करने की लगन को खोते जा रहे हैं. प्रेरणा की कमी और घटता मनोबल ( Moral) इसके सबसे बड़े कारण हैं. यह बात सर्वमान्य है कि कार्य क्षेत्र (Work place) मे सफल होने के लिए व्यक्ति का बिना किसी दबाव (Pressure) और पूरी लगन के साथ काम करना जरूरी है. लेकिन पूरे हफ्ते काम करने के कारण  वह अपने परिवार और खुद के लिए समय नहीं निकाल पाता जिसके चलते उसे मानसिक द्वंद (Emotional Distress) का सामना करना पड़ता है.


जहां आज विदेशी (Foreigner) भी भारत (India) में पढ़ने की इच्छा रखते हैं, वहीं भारत में पढ़-लिख कर विदेश में नौकरी करना, आज हर युवा की पहली प्राथमिकता (Priority) बन चुकी है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि यद्यपि यहां पढ़ने-लिखने के लिए तो अच्छे संस्थान (Institutes) मौजूद हैं लेकिन आपके काम की सराहना (Appreciation) करने वाले संस्थानों की कमी है. इस वजह से यहां काम करने की रूचि युवा-पीढ़ी (Youth) में दिनोंदिन घटती जा रही है, और हमें ब्रेन-ड्रेन (Brain-Drain) अर्थात प्रतिभा-पलायन जैसी गंभीर समस्या का सामना करना पड़ रहा है. निश्चित रूप से यह प्रवृत्ति भारत (India) जैसे प्रगतिशील देश के लिए आर्थिक तौर पर हानिकारक तो है ही, सामाजिक रूप से भी नुकसानदेह (Harmful) है.


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