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कुपोषण से मौतें – लाचार का शिकार

ये बहुत विषाद का विषय है जिस मामले को केन्द्र और राज्य सरकारों को डील करना चाहिए उसके लिए न्यायालय को बोलना पड़े. सरकारी लापरवाही का इससे बड़ा नमूना क्या हो सकता है देश में लोग भूख और कुपोषण से मरते जा रहे हैं जबकि सरकारें सो रही हैं.  जल्द ही उच्चतम न्यायालय ने इसी मामले को संज्ञान में लेते हुए कठोर भाषा का इस्तेमाल किया जिससे उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें कुछ तो चेतेंगी.


अभी हाल ही में माननीय उच्चतम न्यायालय ने देश में बढ़ते कुपोषण और भुख से हो रही मौतों पर चिंता जाहिर करते  हुए कहा कि दो भारत नहीं हो सकते- एक समृद्ध और दूसरा भुखमरी का शिकार. न्यायालय के अनुसार, आप कहते हैं कि हम शक्तिशाली देश हैं, लेकिन भूख से मौतें हो रही हैं. कुपोषण है जिसे खत्म होना चाहिए.


सही बात ये है कि भूख और कुपोषण से लड़ने के सारे उपाय भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं और नेताओं, ठेकेदारों और अधिकारियों की भूख मिटती नहीं. उन्हें सारा धन अपना पेट भरने के लिए इस्तेमाल करना होता है तो ऐसे में जनता की फिक्र किसे और क्यों कर होगी. हालात इतने खराब हैं कि अन्नपूर्णा योजना हो या सार्वजनिक वितरण प्रणाली सब एक ही ढंग से चलाए जा रहे हैं. कई बार तो इनसे वितरित होने वाला अनाज जानवरों के खाने के लायक भी नहीं होता जबकि उसे गरीबों को खिलाने से परहेज नहीं किया जाता.


अगर आपका राशन के दुकानों से पाला पड़ा हो तो आप हकीकत को बेहतर समझ सकेंगे कि कैसे अच्छा अनाज बाजार में बेच दिया जाता है और साफ साफ कह दिया जाता है कि अभी तो राशन जारी ही नहीं हुआ है. लोग दुकानों के बाहर लाइनों में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं और जब बारी आती है तो अनाज नहीं होता. सरकारी अधिकारियों और ठेकेदारों की मिलीभगत से क्या गुल खिलाए जा रहे हैं इसे हर कोई अच्छी तरह जानने के बावजूद कुछ नहीं कर सकता.


आजादी के इतने सारे दशक ऐसे ही बीत गए. गरीब विपन्न ही रह गया. व्यवस्था में शामिल लोग अट्टालिकाएं खड़ी करते जा रहे हैं और गरीब की झोपड़ी उखाड़ दी जाती है. सरकारों का तानाशाही रवैय्या जनता पर कितना भारी पड़ता है इसे बेबस लाचार तहे दिल से महसूस करते हैं.  अगर देश को बेहतर और सशक्त बनाना है, युवा पीढ़ी को बोझ उठाने के काबिल बनाना है तो भूख और कुपोषण मुक्त भारत का निर्माण अनिवार्य तथ्य है.  व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश करनी होगी और जनता को जागरुक बनना होगा. अपने हक के लिए आवाज उठाने की हिम्मत पैदा किए बिना व्यापक परिवर्तन की आस करना बेकार है.


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