वर्तमान में देश की सबसे ज्वलंत समस्या और चर्चा का विषय है भ्रष्टाचार उन्मूलन और लोकपाल विधेयक. समाजसेवी अन्ना हजारे हों या पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी सभी एकजुट होकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान संचालित करते नजर आ रहे हैं. जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के आंदोलन ने पूरे देश को जागरुक करने में महती भूमिका का निर्वहन किया और अब ये अभियान अपना रंग दिखाने की तैयारी में है. सरकार लोकपाल विधेयक लाने की बात मान चुकी है और इसके लिए विशेष समिति का गठन भी कर दिया गया.
लेकिन अब जबकि इस अभियान का पहला चरण पूर्ण हो चुका है ऐसे में कुछ नए सवाल सिर उठा कर खड़े हो रहे हैं यथा क्या लोकपाल बिल जिस उद्देश्य से लागू होगा क्या वह उसे पूर्ण कर पाएगा? क्या लोकपाल कानून लागू होने के बाद जनता की अधिकांश समस्याएं हल हो जाएंगी या फिर आगे कुछ नए कानूनों की मांग की जाएगी?
निश्चित रूप से ये सवाल वाजिब हैं और इन सवालों पर व्यापक बहस की गुंजाइश है. जैसा कि अधिकांश लोगों को मालूम है कि देश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए विभिन्न कानून पहले से ही बने हुए हैं. आईपीसी की धाराएं तो हैं ही साथ मुद्रा विनियमन से संबंधित कानून भी लागू हैं. फिर भी ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार सुरसा के मुख की भांति फैलता जा रहा है.
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एक बारगी तो लगता है कि कठोर कानूनों द्वारा ही सारी समस्यायों पर विजय पायी जा सकती है लेकिन हकीकत की दास्तां बेहद दुखद है. भ्रष्टाचार को एक संस्कार की तरह अपने में समा कर व्यवहार करने वाले कभी भी प्रभावी रूप से भ्रष्टाचार पर रोक को स्वीकार नहीं कर सकते. सही ढंग से देखा जाए तो भ्रष्टाचार एक मनोवृत्ति के रूप ढल चुका है. छोटे से छोटे कार्य कराने के लिए लोगों की जिस तरह भ्रष्टाचार को आश्रय देने की प्रवृत्ति बन चुकी है क्या उसे देखकर ये लगता है कि लोग वास्तविकता में भ्रष्टाचार विहीन समाज की कल्पना कर सकेंगे और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीवन पद्धति अपना सकेंगे.
चिंता की बात ये है कि अभी भी भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए केवल बयानबाजी और दिखावा ही ज्यादा हो रहा है. बचपन से लेकर किशोरावस्था तक जिस तरह के संस्कार विकसित किए जाने चाहिए उसका कहीं कोई उदाहरण नहीं दिखाई देता. अभिभावक अपने बच्चों में नैतिक संस्कार विकसित करने की बजाय उन्हें जीवन में सबसे ऊंचे पायदान पर खड़े होना सिखाते हैं. जबकि ये दोनों काम एक साथ किए जाने चाहिए. बेहतर नागरिक बनाने की दिशा में कहीं कोई प्रयास नहीं किया जाता और बेहतर नागरिक का पैमाना केवल भौतिक समृद्धि मान लिया गया है.
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संसाधन कम हैं, महत्वाकांक्षाएं असीमित तो स्वाभाविक है कि सबकी सारी ख्वाहिशें पूरी नहीं हो सकतीं. भारतीय विचारधारा संतोष और धैर्य को प्रश्रय देती है लेकिन आज की पीढ़ी सब कुछ एक झटके में पा लेना चाहती है. परिणामस्वरूप अनैतिक रास्तों को अपनाना वक्ती जरूरत बन गया है. तो फिर कैसे रुकेगा भ्रष्टाचार. व्यवस्था में सुरक्षित पायदान पर खड़े लोग तो अपनी जरूरतें आसानी से पूरी कर लेते हैं जबकि वंचित समुदाय एक-एक तृण के लिए संघर्ष में फंसा रहता है. ऊपरी स्तर पर जारी भ्रष्टाचार के दानव को देख उसके मन में भी ख्वाहिशें जन्म लेती हैं और एन केन प्रकारेण वह भी अपनी इच्छा पूरी करना चाहता है. कुल मिलाकर एक ऐसे चक्रव्यूह का निर्माण होने लगता है जहॉ पर एक-दूसरे पर अविश्वास और संदेह की भावनाएं गहरी होती जाती हैं.
वाकई प्रश्न अनुत्तरित है कि कैसे बदलाव लाया जाए तो एक बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि परिवर्तन एकांगी ना होकर बहुस्तरीय हों और व्यवस्थागत खामियां दूर करने के साथ व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर व्याप्त बुराइयों पर भी लगाम लगाने की कवायद हो. नैतिक शिक्षा को दृढ़ता से लागू किया जाए ताकि बचपन से ही बुराइयों लड़ने की प्रेरणा मिल सके. विषय व्यापक है इसलिए उपचार भी व्यापक होना चाहिए जिससे इंसानी मन को ही बुरी प्रवृत्तियों में संलग्न होने से बचाया जा सके.
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