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कहीं आपका बच्चा भी तो नहीं बिगड़ रहा है

बच्चे दिल के सच्चे होते हैं, जमीन पर सितारों की गवाही देते छोटे-छोटे बच्चे मन को अपनी मीठी-मीठी बातों से मोहित करने में निपुण होते हैं. कहते हैं आप चाहे जितना भी थके हों अगर घर जाने पर कुछ समय आपको अपने बच्चों के साथ मिल जाए तो आपमें दुबारा स्फूर्ति आ जाती है. कोमलता, प्यार और मासूमियत को अपने अंदर समेट कर लाने वाले यह बच्चे भगवान का रुप सा लगते हैं. लेकिन जिस तरह एक पौधे पर लगा फूल आसपास के माहौल से गंदा हो जाता है उसी तरह लगता है प्यारे-प्यारे बच्चे भी समाज के जहर का शिकार होते जा रहे हैं.

kidsfightingस्कूलों में घटते मारपीट से लेकर हत्या तक के मामले इस बात का सबूत हैं कि किस तरह आज यह तारे आग का लावा बनते जा रहे हैं. कुछ दिन पहले दिल्ली में एक केस आया जिसमें एक नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म के मामले में उसके ही नाबालिग दोस्त पकड़े गए. मामले में हालांकि एक वयस्क ड्राइवर भी था लेकिन जिस बात ने सबका ध्यानार्कषित किया वह था केस में दोनों नाबालिग लड़कों की भूमिका. ऐसा नहीं है कि यह पहला या कोई ज्यादा गंभीर मामला हो बल्कि ऐसे तो कई केस हैं और कई बार तो नाबालिग बच्चे हत्या जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्त रहते हैं.


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बच्चों में बढ़ती हिंसा की प्रवृति की कई वजहें हैं जिसमें सबसे अहम है बुद्धू बॉक्स यानी टीवी का असर. आज कल टीवी, सिनेमा और कम्प्यूटर गेम्स आदि हमारे जीवन का अटूट अंग बन चुके हैं. हर परिवार में इनका प्रचलन है, शायद ही आज कोई ऐसा परिवार हो जो टीवी, मोबाइल या अन्य किसी आधुनिक संचार से न जुड़ा हो.

आज इन टीवी और सिनेमा पर कई तरह के प्रोगाम दिखाए जाते हैं. कई ज्ञानवर्धक होते हैं तो कई हिंसक. आजकल टीवी पर आने वाले रियलिटी शो आदि को छोड़ भी दें तो बच्चों के पसंदीदा कार्टून में भी अब हिंसा, मारकाट और सेक्स आदि को दर्शाया जाता है. पहले तो हम बच्चों को टीवी शो और सिनेमा देखने से रोकते थे लेकिन उन्हें कार्टून से अलग रखना बहुत ही मुश्किल है और अब तो मोबाइल बच्चों का पसंदीदा हो चुका है.

fistfighting1_articleअमूमन देखा जाता है कि बच्चे का सही विकास 6 से 16 साल की उम्र में होता है जब वह समाज और अपने आसपास की चीजों को धीरे-धीरे सीखते हुए जिंदगी में अपने कदम बढ़ाता है. हम यहां टीवी और ऐसे अन्य मीडियमों को इसलिए ज्यादा प्रभावी माध्यम बता रहे हैं क्योंकि बच्चे जो कुछ देखते हैं उसका अनुसरण करने का प्रयास जल्दी करते हैं और जब वह हिंसा तथा अपराध के दृश्यों को देखते हैं तो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसका प्रभाव उनके मन पर अवश्य पड़ता है.


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टीवी पर हिंसा बच्चों के बाद के जीवन को भी प्रभावित करती है. यह बच्चों को समय से पहले वयस्क बना देती है.

टीवी और इंटरनेट के साथ ही आसपास का माहौल भी बच्चों को हिंसक बनाने में भागीदार है. फ्लैट सिस्टम और एकल परिवार का बढ़ता क्रेज बच्चों को पारंपरिक वातावरण से दूर कर रहा है जो उनके विकास का सही रास्ता था. एक संयुक्त परिवार में जहां बच्चों को बड़ों का सरंक्षण मिलता था वहीं बाहर खुले मैदान उनकी शारीरिक कसरत को पूरा कराते थे. इन दो चीजों की कमी ने बच्चों में हिंसक प्रवृति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है.

बच्चों में हिंसक प्रवृति के यों तो और भी कारक हैं जैसे पारिवारिक कलह, पाश्चात्य प्रभाव आदि. यह भी उसी तरह बच्चों को प्रभावित करते हैं जैसे टीवी आदि.

वैसे तो भारत में बच्चों को टीवी देखने या इंटरनेट आदि के इस्तेमाल की कोई सीमा तो नहीं है लेकिन फिर भी हमें कोशिश करनी चाहिए कि दो साल से कम बच्चे तो टीवी देखें ही न और दो वर्ष से अधिक के बच्चों के लिए दो घंटे काफी होते हैं जिसमें भी अभिभावकों को ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा कौन से प्रोगाम देखे और कौन से न. अपने बच्चे से खुलकर बातें करें और टीनएज में होने वाले बदलावों को समझाएं तथा अपने अनुभवों से उसे जीवन की राह में आगे बढ़ना सिखाएं.


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