आए दिन टेलीविजन पर हमें टीआरपी नाम सुनने को मिलता है. कभी न्यूज की हेडलाइन में तो कभी समाचारपत्रों की सुर्खियों में टीआरपी की बात होती ही रहती है. आज के युग में टीवी पर आने वाले शो हों या न्यूज चैनल्स के प्रोगाम सभी में टीआरपी का खेल मिला हुआ है. टीआरपी ही वह कारण है जिसकी वजह से न्यूज चैनल्स में खबरें सच की जगह झूठ दिखाती हैं, टीआरपी के ही कारण सास-बहू के प्रोग्रामों की समयावधि इतनी ज्यादा होती है. और आजकल टीआरपी को बढ़ाने के लिए ही टीवी पर अश्लीलता परोसी जाती है. अब यहां यह तो बताने की जरुरत नहीं है कि टीवी में अश्लीलता का ग्राफ किस तरह बढ़ा है.
अगर टीआरपी घटने और उसे बढ़ाने का कोई नया उदाहरण चाहिए तो जरा एक नजर बिग बॉस के बीते कुछ समय पर डालें. कुछ दिन पहले बिग बॉस में डॉली और समीर सोनी की लड़ाई के बाद दोनों को ही बाहर कर दिया गया था. और उसी समय बिग बॉस के घर में एंट्री हुई पामेला एंडरसन की. उनके आते ही शो की टीआरपी फिर से बढ़ गई और उनका आना सफल हो गया. लेकिन जैसे ही वह बाहर आईं उसके तीन दिन के अंदर-अंदर समीर और डॉली बिन्द्रा की वापसी हो गई. जानते हैं क्यों? क्योंकि इन दोनों के बिना शो में कोई दम नहीं लग रहा था, न ही लड़ाई हो रही थी और न ही गाली-गलौज. रियलिटी शो का यह तो मात्र एक उदाहरण है. पूरी तरह से पहले से निर्धारित इन रियलिटी शोज में टीआरपी के लिए किसी को भी बुलाया या भगा दिया जाता है. इनमें चयन के समय ही ऐसे कलाकारों को चुना जाता है जो ड्रामा करने में भी उस्ताद हों.
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आज टीवी में दो तरह के ही कार्यक्रम हिट माने जा रहे हैं, एक तो सास-बहू का हिट फार्मूला या गाली-गलौज से भरे रियलिटी शो. ज्यादा से ज्यादा टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट (टीआरपी) पाने की होड़ में जहां एक ओर इमोशनल ड्रामा के जरिए छोटे पर्दे की बहुएं दर्शकों का दिल जीतने की कोशिश कर रही हैं. वहीं, दूसरी ओर रियलिटी शोज में सेलिब्रिटीज और अश्लीलता का जबरदस्त तड़का लगाया जा रहा है.
क्या है टीआरपी और कैसे निकाली जाती है
कार्यक्रमों की रेटिंग का खेल खुद दूरदर्शन ने ही शुरू कर दिया था. उसका दर्शक अनुसंधान विभाग यानी डार्ट विभिन्न कार्यक्रमों की साप्ताहिक रेटिंग बताता था. लेकिन 1994 के आस-पास निजी क्षेत्र में मार्केट रिसर्च एजंसियों इनटैम और टैम का प्रवेश हुआ. इन दोनों एजंसियों ने निजी चैनलों की मदद से डार्ट को अप्रासंगिक बना दिया. बाद में इनटैम और टैम का विलय हो गया.
टीआरपी तय करने के लिए टैम ने भारत के 73 शहरों में एक पीपल मीटर लगा रखा है. इन मीटरों से औसत सात हजार सैंपल इकट्ठा किए जाते हैं. यह पीपल मीटर ज्यादातर मंहगी कालोनियों और उच्च मध्यवर्गीय इलाके में लगा होता है. इसलिए जो आंकड़े इकट्ठा किए जाते हैं वे आमतौर पर कुछ लोगों की पसंद होते हैं लेकिन इन्हीं आंकड़ों की बुनियाद पर उसे समाज की पसंद का दर्जा दे दिया जाता है.
टीआरपी एक अनुमान देती थी कि लोग कौन सा प्रोग्राम ज़्यादा देख रहे हैं. इसके साथ ही टीआरपी विज्ञापन देने वालों का एक औज़ार है. हमारे यहां चैनल का रेवन्यू सिर्फ़ ऐड से आता है. यानी बात शीशे की तरह साफ है जितनी ज्यादा रेटिंग होगी उतने ज्यादा एड मिलेंगे.
निंदा रस का स्वाद
हम जब भी टीवी देखते हैं तो टीवी वालों को हजारों गालियां देते हैं कि वह टीवी पर बकवास कार्यक्रम दिखाते हैं और कहते हैं कि वह अश्लीलता फैला रहे हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी एक सच है कि हम खुद ऐसे प्रोगाम आदि को बढ़ावा देते हैं. हम कहते हैं कि न्यूज चैनल्स में हिंसक खबरें और रेप, बलात्कार, वेश्यावृत्ति आदि की खबरें थोड़े संयम से दिखाए जाने चाहिए लेकिन उसी समय हम उन खबरों को सबसे ज्यादा देखते हैं जिनमें रेप, बलात्कार या अन्य कोई हिंसक खबर हो. और यही बात टीवी और न्यूज चैनल्स वाले बखूबी जानते हैं. उन्हें पता है दर्शकों को किस तरह निंदा रस का सेवन कराना है. एक चीज को गलत कहकर भी हम उसे ही देखते हैं.
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नब्ज पकड़ने की कला
न्यूज चैनल्स के साथ अखबार वाले भी जानते हैं कि लोग स्कैंडल्स और अधिक हिंसक शब्दों को ज्यादा तलाशते हैं. अखबार वाले भी पाठकों के बारे में जानते हैं कि जहां उन्हें रेप, बलात्कार आदि की खबरें मिलेंगी वहीं वह पढ़ेंगे और दूसरे को भी साथ में पढ़ाएंगे. आज वक्त ऐसा आ गया है जहां लोगों को खबरें बिना मसाले के तो पचती ही नहीं हैं. उन्हें खबरों में “कुछ हुआ” जैसा ही चाहिए होता है. और “कुछ हुआ” का अर्थ ही होता है कुछ गलत हुआ और यही गलत होना ही सही मायनों में खबर होती है और यही रोचक बन जाता है. जहां तक टीवी पर आने वाले टीवी प्रोगाम की बात है तो वहां भी यही तथ्य लागू होता है.
यानी चैनल्स या मीडिया कई बार अपने दृष्टिकोण और जनता की नब्ज पकड़ने की कला में बिलकुल सही हैं उन्हें यह पता है कि आम जन के लिए खबर का अर्थ कुछ गलत से होता है. और लोग अखबार के उन हिस्सों की ओर ज्यादा खोज भरी नजरों से निहारते हैं जहां उन्हें आशा होती है कि यहां तथाकथित गलत खबरें होगी. स्कैंडल्स की सुर्खियां दिलों दिमाग पर छाप छोड़ देने में सक्षम हैं. किसी भी सही या अच्छी बात का असर अल्प समय तक ही रहता है जबकि सनसनी फैलाने वाली खबरें काफी लंबे समय तक याद रहती हैं. तो फिर हम चैनल्स को ही दोष क्यूं दें? क्यों नहीं हम खुद को दोष देते हैं?
दूसरे से सवाल करना बहुत आसान होता है लेकिन उन्हीं सवालों का खुद जवाब देना मुश्किल हो जाता है. हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि जब हम किसी पर एक उंगली उठाते हैं तो बाकी बची चार अंगुलियां हम पर ही इशारा करती हैं.
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