ब्लॉग के नाम से हो सकता है आप थोड़ा असमंजस में हों कि किस तरह छोटी स्कर्ट के बड़े जलवे हो सकते हैं. आज विश्व में हर जगह पश्चिमी सभ्यता की हवा फैली हुई है जो लोगों के पहनावे और रहन सहन के साथ उनके नैतिक मूल्यों को भी प्रभावित कर रही है.
छोटे कपड़े, बदन दिखाऊ वस्त्र और भड़कीले कपड़े आज हर समाज की पहचान से बन गए हैं और अगर हम भारत की बात करें तो पाएंगे कि यहां भी पश्चिमी सभ्यता के पैर कुछ ज्यादा ही पसर चुके हैं. सिनेमा में तो पहले से ही अंगप्रदर्शन चालू था लेकिन अब तो सामान्य जीवन और समाज में भी स्त्रियां बदन दिखाऊ कपड़े पहनना पसंद करती हैं.
कभी भारतीय समाज में देवी तुल्य पूजी जाने वाली स्त्री आज भोग की वस्तु हो चुकी है. आधुनिक समाज में नारी का जो रूप उभरकर सामने आया है, उसमें उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. अगर आप आज विज्ञापनों या व्यापार जगत की बात करें तो पाएंगे कि उपरोक्त कथन सही है. आज के समय में हालात ऐसे आ गए हैं कि विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी शरीर का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन किया जाता है.
Read: काफी रोचक है एशेज सीरीज की कहानी
साबुन, फेसक्रीम, अंतर्वस्त्र आदि जो महिलाओं के इस्तेमाल की वस्तुएं थीं उनमें तो नारी देह का मतलब समझ आता है पर उसमें भी नारी का ऐसा इस्तेमाल किया जाता है जिससे उत्पाद की कम नारी शरीर का विज्ञापन ज्याद होने लगता है. हद तो तब हो जाती है जब पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाकू, गुटखा, सिगरेट आदि उत्पादों के विज्ञापनों में भी नारी को दिखाया जाता है. जबकि यहां उनकी कोई जरूरत नहीं है. अब जिस चीज का भला पुरुष इस्तेमाल करें उसके विज्ञापन में महिलाओं का क्या काम और हां इस चीज में तर्क दिया जाता है कि नारी के होने से विज्ञापन में आकर्षण आता है. नारी को सेक्स सिबंल की तरह इस्तेमाल कर वास्तव में ऐसे विज्ञापन पुरुषों को गुमराह करते हैं कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं चुबंक की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी.
जरा सोच कर देखिए आप अपने परिवार के साथ टीवी पर कोई धार्मिक कार्यकम देख रहे हों और ब्रेक के दौरान टीवी पर अडंरवियर या कंडोम का अश्लील विज्ञापन आए तो नजरें किस तरह झुक जाती हैं.
विज्ञापन जगत में नारी देह और उनकी सेक्सी छवि को दिखाने के पीछे तर्क भी बहुत हैं. ऐसे विज्ञापन बनाने वालों को लगता है कि वे विज्ञापनों में मॉडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं. जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था. ऐसे विज्ञापन बनाने वालों को चाहिए कि वह अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें. उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं. न कि अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल करे और बाजार को नारीभोग में तब्दील कर दें.
Read: कुछ हुआ का खेल “टीआरपी बखेड़ा”
आज हम कहते हैं कि महिलाएं आजाद हैं और आत्मनिर्भर हो रही हैं. समाज में महिला नेताओं, हिरोइनों और महिला खिलाडियों को देख आगे बढ़ता स्त्री समाज नजर आता है. लेकिन जब हम इन्हीं स्त्रियों को कम कपड़े पहने रैंप और फैशन शो में देखते हैं तो उनके खिलाफ कहते हैं कि वह अपने स्त्री देह और शरीर का फायदा उठा आगे बढ़ रही हैं. टी.वी. में या विज्ञापनों में औरतों के देह-प्रदर्शन पर भी नारी जगत को ही दोषी मानने लगते हैं. पर इन सब के पीछे का सबसे ताकतवर कारक है बाजार और पूंजीवाद. पूंजीवाद अपना व्यापार चलाने के लिए औरतों का मनचाहा इस्तेमाल करता है. फिर चाहे वह उसे घर में रखे या रैम्प पर चलाए. नारी सिर्फ ‘कार्य करने’ के लिए होती है, जैसा उसे कहा जाता है उसे वैसा ही करना होता है. ऊंचे सपनों और ख्याली दुनियां की सैर करा नारी को जताया जाता है कि वह आगे बढ़ रही है बल्कि सच तो यह है कि ऐसे विज्ञापन बनाने वाले और देह दिखा कर कामयाबी देने वाले लोग महिलाओं को एक कदम आगे बढ़ाने के साथ उन्हें कई कदम पीछे धकेल देते हैं.
आज अधिकतर घरों में टीवी है और ज्यादातर लोग इन विज्ञापनों के सीधे प्रभाव में होते हैं. इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नजर रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है. बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए.
Read more:
Read Comments