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जीने नहीं तो मरने ही दो

अभी हाल ही में बॉलिवुड फिल्म गुजारिश की थीम इच्छा मृत्यु पर आधारित दिखाई गई है जिसके कारण एक बार फिर से समाज में इच्छा मृत्यु पर या यूं कहें कि स्वयं के लिए मांगी गई मृत्यु पर बहस छिड़ गई है. समाजशास्त्रियों सहित विधिज्ञों की राय में यह एक बड़ा मुद्दा है जिसे खारिज नहीं किया जा सकता. कोई व्यक्ति जाने-अनजाने कारणों से किसी अन्य व्यक्ति के लिए दयावश या स्वार्थवश मृत्यु की कामना करे तो यह कहां तक सही कहा जाएगा ? भले ही कोई असाध्य रोगों से ग्रस्त हो, मृत्युशय्या पर दीर्घावधि से पड़ा हो, भयानक दर्द से पीड़ित हो और स्वयं का कार्य करने में असमर्थ हो केवल यही उसे स्वयं की आत्महत्या स्वीकार करने के लिए बाध्यकारी कारक नही हैं. वेंकटेश के मामले में अदालत ने इच्छा मृत्यु को जब अस्वीकार किया था तो उनका मत यही था.


असाध्य रोगियों के लिए मानवाधिकारवादियों की राय इच्छा मृत्यु के पक्ष में होती है. कई गैर-सरकारी संगठन इच्छा मृत्यु के पक्ष में खड़े नजर आते हैं किंतु सरकार अभी भी उत्तराधिकार और सांपत्तिक विवादों में होने वाले अधिकता को देखते हुए ऐसा कोई कानून बनाने के पक्ष में नहीं है जिससे इच्छा मृत्यु को समर्थन मिल सके.


समाज और कानून कई बार अंतर्विरोध के शिकार होते हैं. सामाजिक नियम और रीति-रिवाज तथा वैधिक कानूनों की संवैधानिक स्थिति कई बार अलग होती है. सार्वत्रिकता का नियम यहां नहीं लागू होता और यदि ऐसे मामलों में सिर्फ मानवाधिकार के पहलू से विचार किया जाता है तो स्थिति काफी जटिल और सांघातिक हो जाती है.


यकीनन किसी भी परिस्थिति में किसी भी व्यक्ति के लिए मृत्यु की अनुमति प्रदान करना (दण्डात्मक प्रावधान को छोड़ कर) न केवल गलत और इंसानी रवायतों के खिलाफ है वरन यह पूरी तरह एक दोषपूर्ण पंरपरा का परिपोषक भी है. यदि आप इच्छा मृत्यु के लिए कानून बना भी देते हैं तो इससे होने वाली हानियों का जिम्मेदार कौन होगा ? पीड़ित के लोलु उत्तराधिकारियों की पिपासा पीड़ित को असमय काल का ग्रास बना देगी.


अर्थप्रधान विश्व में नीति-अनीति की निर्धारक सरकारें ही नहीं हो सकतीं बल्कि इसके लिए व्यापक जनमत और संपूर्ण समाज का हित-अहित जिम्मेदार होता है. यदि व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करने वाली नीति बनाई जानी हैं तो यह ख्याल स्पष्ट होना चाहिए कि कहीं उनका दीर्घाकालिक परिणाम समस्याओं की श्रृंखला न पैदा कर रहा हो.

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