“दिवस” की प्रासंगिकता –भारत के संदर्भ में
आधुनिक समय के आधुनिक तीज-त्यौहार यानी मदर्स डे, फादर्स डे, वैलेंटाइन डे आदि कई डे आज समाज में पारंपरिक त्यौहारों का स्थान लेते जा रहे हैं. किसी खास दिन किसी चीज के लिए मनाए जाने वाले यह त्यौहार न सिर्फ पश्चिमी देशों तक सीमित रहे बल्कि उन्होंने अपनी छाप पूर्वी देशों में भी छोड़ी और इन पर्व, त्यौहार रूपी डेज की लोकप्रियता हर तरफ फैल रही है.
अधिकतर पश्चिमी देशों में मनाए जाने वाले यह त्यौहार किसी खास दिन किसी खास के लिए अर्पित होते हैं जैसे 14 फरवरी वैलेंटाइन, 1 अप्रैल, रोज़ डे, फादर्स डे, आदि. इनकी प्रासंगिकता विदेशों में ज्यादातर इस वजह से ज्यादा है क्योंकि वहां अधिकतर परिवार अलग-अलग रहते हैं, वहां परिवार के साथ रहने का समय नहीं होता इसीलिए किसी खास दिन परिवार वालों को दे उनके प्रति अपने प्रेम, स्नेह और कृतज्ञता को दर्शाते हैं. पश्चिमी सभ्यता में ज्यादातर परिवार के सदस्य अलग ही रहते हैं और कॅरियर में इतने व्यस्त होते हैं कि निजी संबंधों में कई बार दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं.
पश्चिमी देशों तक तो ठीक है लेकिन यह त्यौहार भारत और अन्य पूर्वी देशों में भी बहुत तेजी से फैल रहे हैं जिससे एक तरह का सामाजिक संकट सा पैदा हो गया है. पूर्वी देशों में जहां यह त्यौहार फैल रहे हैं वहां भी त्यौहार कम इसका बाजारी स्वरुप ज्यादा आया है. त्यौहारों में देने वाले कार्ड, बैंड्स, पोस्टर आदि बाजार की ही देन हैं. और इसी वजह से यह पूर्वी देशों के युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं.
वैसे अगर इनकी प्रासंगिकता पर नजर डालें तो भारत जैसे पूर्वी देशों में इनका महत्व कहीं नजर ही नहीं आता. यहां पूरा वर्ष ही परिवार वालों के साथ गुजरता है और अपनों के प्रति स्नेह दिखाने के लिए किसी खास दिन का इंतजार नही किया जाता. भारत और साउथ एशियन देशों में समाज एक परिवार की तरह होता है. यहॉ माता पिता, भाई-बहन के प्रति स्नेह हर दिन होता है.
विदेशी संस्कृति से प्रभावित अधिकतर “दिवसों” में अश्लीलता का अंश भी देखने को मिलता है जो वास्तव में पश्चिमी देशों के हिसाब से अश्लीलता नहीं होती है लेकिन पूर्वी देशों की सभ्यता और संस्कृति में इसे अश्लीलता ही कहेंगे. जैसे 14 फरवरी या अन्य प्रेम दिवसों को लड़के लड़कियों का खुलकर सामने प्रेम का इजहार करना जो वास्तव में प्रेम कम वासना ज्यादा होती है. हर वैलंटाइन डे पर नई लड़की को प्रपोज कुछ ऐसा मतलब निकालते हैं यहां के युवा. पार्कों में खुलेआम आलिगनबद्ध हो कर अपनी संस्कृति के मुंह पर थप्पड़ मारना, शादी से पहले सेक्स को जायज मानना और रिश्तों को मात्र औपचारिकता मानने से ही ऐसे दिवसों की जरुरत पड़ी जहां कम से कम एक दिन तो रिश्तों को उनकी इज्जत देने के लिए सुरक्षित रखा जाता है.
बेशक यह त्यौहार विश्व में एक तरह की एकता फैलाने में सहायक हो और अपनों के प्रति स्नेह, प्रेम को दर्शाने का माध्यम हो लेकिन जब यह किसी प्रदेश या प्रांत की संस्कृति को प्रभावित करते हैं तो इनकी प्रासंगिकता पर सवाल उठने जायज हैं.
भारत जैसे विकासशील देशों में जिस तरह से “दिवसों” की लोकप्रियता बढ़ रही है उसमें युवाओं की भागीदारी ज्यादा है लेकिन वह यह समझने को बिलकुल भी तैयार नही हैं कि जिस त्यौहार को वह मनाते हैं वह उसका वास्तविक रुप है ही नहीं. जैसे मदर्स डे का मतलब महंगे कार्ड्स, गिफ्ट आदि देना नहीं है बल्कि मदर्स डे विदेशों में पारपरिक तौर तरीके से चर्च आदि में प्रार्थना करके मनाया जाता है. सीधे शब्दों में हम उन त्यौहारों का बाजारी रुप मनाते हैं.
बहरहाल चाहे कुछ भी हो लेकिन आधुनिक समय के साथ जब कभी ऐसे पर्व त्यौहार हमारे देश या किसी अन्य देश में अपनी पकड़ बनाएंगे तब तब उन पर्वों की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठेंगे. हमें अपने छोटों को आसपास के समाज और अपनी संस्कृति से जोड़ना चाहिए. उन्हें अपने पर्व, त्यौहारों की रंगीन दुनिया के करीब लाना चाहिए. दिवाली, दशहरा, होली आदि पारंपरिक त्यौहारों की चमक के आगे तो सभी त्यौहार फीके होते हैं फिर क्यों भागें इन विदेशी पर्वों की ओर. क्या आपने कभी स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर किसी को कार्ड आदि दिया है? कार्ड्स बनाने वाली कपंनियां भी इन राष्ट्रीय त्यौहारों के लिए कार्ड्स नहीं बनातीं क्योंकि कोई लेता ही नहीं है. जुडें और जोड़ कर रखें सबको अपनी संस्कृति से.
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