अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी
आंचल में हैं दूध, और आंखों में पानी॥
नारी की स्थिति पर गुप्त जी की लिखी उपरोक्त लाइनें एकदम सटीक और दिल को छू जाने वाली हैं. इन पंक्तियों का सीधा मतलब है नारी का जीवन ही अजीब है, उसके आंचल में तो जिंदगी देने वाला दूध है लेकिन आंखों में तो वही आंसू है. कितना अजीब है नारी का जीवन! लेकिन आज हालात थोड़े ही सही सुधरे जरुर हैं. कल तक घर की चारदिवारी में रहने वाली नारी आज घर के दहलीज के बाहर भी अपने सपने देख सकने के काबिल हुई है. शिक्षा, नई राह और बदलते दृष्टिकोण की वजह से नारी आज एक शक्ति के रुप में उभर रही है.
नारी आज के बदलते परिवेश में जिस तरह पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रगति की ओर अग्रसर हो रही है, वह समाज के लिए एक गर्व और सराहना की बात है. आज राजनीति, टेक्नोलोजी, सुरक्षा समेत हर क्षेत्र में जहां जहां महिलाओं ने हाथ आजमाया उसे कामयाबी ही मिली. अब तो ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां आज की नारी अपनी उपस्थिति दर्ज न करा रही हो. और इतना सब होने के बाद भी वह एक गृहलक्ष्मी के रूप में भी अपना स्थान बनाए हुए है.
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी विचारणीय है जहां आज भी महिलाओं को घर के बाहर न निकलने की हिदायत दी जाती है, रेप या बलात्कार होने पर आत्महत्या पर मजबूरकरने वाला समाज, कन्या भ्रूण हत्या जैसे पाप हमारे समाज के विकास में अवरोध पैदा कर रहे हैं.
अगर हम समय से थोड़ा ही पीछे जाएं तो मालूम होगा कि हालात कितने बदले हैं. 1991 से पहले देश में महिलाओं की स्थिति बेहद कमजोर और दयनीय मानी जा सकती थी. जहां एक तरफ समाज में इंदिरा गांधी जैसी महिलाओं ने नारी सशक्तिकरण की तरफ कदम बढ़ाए वहीं दूसरी तरह अपना देश उन देशों में शामिल था जहां पर लिंगानुपात में भारी अंतर था. लिंगानुपात से मतलब होता है प्रति हजार पुरूषों में महिलाओं की संख्या. 1901 में भारत में लिंगानुपात 972 था जो कि गिरते गिरते 1991 में 927 हो गया. देश के पिछड़े इलाकों में महिलाओं का जीवन बेहद कठिन और पुरुषों के अनुसार चलता था.
लेकिन पहले भी ऐसा नहीं था कि महिलाओं की समाज के आर्थिक क्षेत्र में कोई भागीदारी नहीं थी. पहले भी महिलाएं समाज में आर्थिक क्षेत्र में सहयोग देती थीं लेकिन समाज उनके योगदान को मान्यता नहीं देता था. सरकारी नौकरी हो या प्राइवेट सेक्टर महिलाएं हर जगह कार्यरत थीं लेकिन हमारा पुरुष प्रधान समाज उन्हें उनकी सही मान्यता नहीं देता था.
पर 1991 और इसके आने वाले समय के बाद महिलाओं की स्थिति में बेहतरीन बदलाव आए. चारो तरह शिक्षा क्रांति ने महिलाओं को भी नया जीवन दिया. घर की दहलीज पार करके उन्होंने पुरुषों की बराबरी करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम करना शुरु किया.उन्होंने उन क्षेत्रों में भी अपनी छाप छोड़ी है, जहां पहले सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व था. अब पुरुष भी महिलाओं को उनका स्थान और महत्व देने लगे.
हाल ही में भारत ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की. महिला आरक्षण बिल के पास होने से जहां पहले से ही पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी 33% से ज्यादा थी अब उम्मीद है कि देश की सरकार में भी उनकी भागीदारी बढ़ेगी. भ्रूण हत्या के मामलों में भी तेजी से वृद्धि हो रही है. इन हालात में निश्चित ही महिला आरक्षण विधेयक से महिलाओं का संख्या बल इस नकारात्मक परिदृश्य को बदलने में सहायक सिद्ध होगा.
हालांकि आज भी महिलाओं को उतना आगे नही आने दिया जा रहा है जितना उनको जरुरत है. और इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे समाज का पुरुष प्रधान होना. हालात ऐसे हैं कि नारी पुरूषों के लिये भोग-विलास की वस्तु है और जनता के मनोरंजन का साधन. पूंजीपतियों की झोली भरने और मतलब के लिये वह विज्ञापनों, फिल्मों आदि क्षेत्र में अश्लील रूप को प्रदर्शित की जा रही है. महिला आरक्षण का भी मात्र वही महिलाएं फायदा उठा सकती हैं जो शिक्षित या योग्य हैं. आज भी जो महिलाएं पर्दे के पीछे रहती हैं उनकी स्थिति वही की वही है. महिला आरक्षण बिल सिर्फ उच्च वर्गीय महिलाओ के लिए ही उपयुक्त होगा.
लेकिन जहां महिलाओं को दबाने में पुरुषों की भागीदारी देखी जा रही है, वहीं महिलाओं का व्यवहार भी उनकी प्रगति के रास्ते आ रहा है. अक्सर ऐसा देखने में आ रहा है कि जो स्त्रियां बाहर निकल कर समाज में कार्य करती हैं वह कामयाबी और आजादी के नशे में अराजक हो जाती हैं. महिलाओं का बिगड़ता फैशन और कम होती मर्यादाएं इस बात का प्रमाण हैं. इसके साथ ही ऐसा देखा जाता है महिलाएं युवावस्था में कैरियर बनाने में वे इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि उस समय संतान पैदा करने का अवसर नहीं रहता है. बाद में इस कार्य में रुचि नहीं रह जाती है. उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों मैं फैली श्वेत जाति लुप्त होने की ओर अग्रसर है और रूस जैसे देशों को संतानोत्पत्ति के लिए विशेष प्रयास करने पड़ रहे हैं. बदलते समय में नारी में कोई फूलनदेवी, तो कहीं सेक्स सिंबल की तरह देखता है लेकिन उनकी भी कमी नहीं है जो नारी में कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स सरीखी नारियों को देखते हैं.
ऐसी महिलाएं भी कम नहीं हैं जो अपने फायदे के लिए या कभी-कभार सिर्फ मनोरंजन के लिए भी गैर मर्दों से रिश्ता बनाने से नहीं चूकती हैं. यही वजह है कि आज भारत में भी लिव-इन रिलेशनशिप की जड़ें मजबूत हो चुकी हैं. विवाहेत्तर संबंधों का चलन बढ़ गया है. इसकी वजह से तलाक के मामलों में भी काफी इजाफा हो रहा है. इस प्रकार की कुछ समस्याएं अभी छोटी हैं, लेकिन इनके आकार के बदलते ही हम और बड़े नैतिक पतन की ओर बढ़ जायेंगे. अब अगर हम इसके लिए पाश्चात्य संस्कृति को दोष दें तो गलत होगा, क्योंकि खुद हम जिम्मेवार हैं इस पतन के लिए. कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक समाज में महिलाओं को अपनी जगह नहीं मिल सकती.
अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो पाएंगे कि अब भी हमारे देश को महिलाओं की स्थिति सुधारने की जरुरत है. शिक्षा को निचले स्तर तक पहुंचा कर हम नारियों को सशक्त करने का प्रयास कर सकते हैं. इसके साथ ही महिलाओं को भी अपने अधिकार के साथ समाज की मर्यादा का भी ध्यान रखना चाहिए. एक सही दिशा में ही चलकर महिलाओं का सही विकास संभव है.
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